SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संसार के कोई भी जीव पाप न करें। किसी भी जीव को दुःख न पहुँचे । समस्त संसार दुःख एवं पाप से मुक्त हो जाए और उन्हें शाश्वत सुख की प्राप्ति हो।१८२ । ___ मैत्री भावना का जिसके भीतर उदय हुआ है उस साधक की आत्मा में सुकुमार भावों का विकास होता है। वह किसी भी जीव को दु:खी देखने के लिए तैयार नहीं है। दूसरों की अवदशा उससे देखी नहीं जाती। मैत्री भावनामें जीव मात्र के कल्याण की प्रार्थना भी समाविष्ट है। मैत्री भावना सर्वश्रेष्ठ प्रार्थना : सर्वोत्तम या श्रेष्ठ प्रार्थना यह है कि - जिसमें स्वार्थ वृत्तिका त्याग करके परमार्थ वृत्तिसे संसार के सभी जीवों के हित की चिंता करने को कहा गया है। ऐसी प्रार्थना को परावर्तित (Reflectie prayer) कहा जाता है। क्योंकि सर्व में स्वका समावेश हो जाता है। लेकिन स्वमें सर्व नहीं समाता। “अणु परमाणु शिवबन जाए, अखिल विश्वका मंगल होवे,” "सभी जीव सुखी होवे, अखिल विश्व को शांति मिले।" उत्तम प्रार्थना स्वार्थ के लिए नहीं की जाती है। उत्तम प्रार्थना में परमार्थभाव अवश्य होना चाहिए । तीर्थंकर बनने के लिए २० बोलकी आराधना करनी चाहिये। जिन्होने बीस बोलकी आराधना की हो वे तीर्थंकर बन सकते हैं। वे बीस बोल इस प्रकार है - १) अरिहंत २) सिद्ध ३) प्रवचन (भगवंतो का उपदेश) ४) गुरु ५) स्थाविर (वृद्धमुनि) ६) बहुसूत्री - पंड़ित ७) तपस्वी इन संतों का गुणनुवाद करनेसे बार-बार ज्ञानमें उपयोग लगाने से ९) निर्मल सम्यकत्व का पालन करने से १०) गुरु आदि पूज्यजनों का विनय करने से (११) निरंतर षडावश्यक का अनुष्ठान करने से १२) ब्रह्मचर्य अथवा उत्तर गुणों का व्रतों तथा प्रत्याख्यान का अतिचार रहित पालन करने से १३) सदैव वैराग्य भाव रखने से १४) बाह्य और अभ्यंतर तप करनेसे १५) सुपात्र दान देने से १६) गुरु, वृद्ध, रोगी, तपस्वी तथा नवदीक्षित मुनि की सेवा करने से (१७) समाधि भाव - क्षमा भाव रखने से १८) अपूर्व अर्थात् नित्य नये ज्ञान का अभ्यास करने से १९) बहुमानपूर्वक जिनेश्वर भगवान के वचनों पर श्रद्धान करने से और २०) तन, मन, धन से जिनशासन की प्रभावना करने से (२२६)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy