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________________ महान गुण है। क्रमश: मैत्री भाव का इतना विकास होता है कि - सारे संसार के सभी जीवों के साथ मैत्री भावना विकसती है। जैन दर्शन यह भी बताता है कि - चौद राजलोक के विशाल क्षेत्रमें अनंती बार हम जन्म और मरण का अनंत चक्र में घुमे हुए हैं। संसार के सभी जीवों के साथ एक या दुसरे प्रकार से आत्मिय संबंध से रह चुके हैं। तो अब किसको हम शत्रु समझेंगे । शत्रु बनाकर कौनसा लाभ होने वाला है। इसलिए अच्छी बात तो यह है कि - संसार के किसी भी प्राणी के साथ वैर मत रखना। सभी को मित्र समझना। अपकारी के साथ भी मैत्री रखना बहुत ही कल्याणकारी सिद्ध होगा। ___मैत्री और क्षमा जैन धर्म का प्राण है। जैन दर्शन मैत्री और क्षमा पर अवलंबित है। प्रत्येक तीर्थंकर ने जैन साधक को साधना के अंतिम लक्ष्य मैत्री और क्षमा का विकास करने को बार - बार कहा है। मैं संसार के सभी जीवों की क्षमा चाहता हूँ। मेरे अपराधों की क्षमा चाहता हूँ। संसार के सभी जीव मुझे क्षमा करें। मेरे अपराध के लिए क्षमा प्रदान करें। मेरा सभी जीवों के साथ मैत्री का संबंध है। मैत्री है, किसी के साथ मेरा बैर नहीं है। १८१ वैर, साधनामें बाधा करता है । कषायका निमित्त होता है, भव परंपरा को विकृत करनेवाला है। उदाहरणार्थ - मरूभूति और कमठ जैसे दो भाईयों के बीच में दश- दश भव तक वैर परंपरा चलती रही और कमठ ने मुनि हत्या आदि करके इतने घोर पाप संचित किये और समत्व की साधना से मरुभूति की आत्मा तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ भगवान बन कर मोक्ष में पहुँच गये और कमठ तो आज भी संसार में भटक रहा है। जो क्षमायाचना करता है वही सच्चा आराधक है और जो क्षमायाचना नहीं करता है उसकी आराधना आराधना ही नहीं है । जैन दर्शन उसे विराधक कहते हैं। उपशम या क्षमाभाव जैन साधनाका सार है। उपशम या तो क्षमा से ही सभी जीवों के लिए समता का भाव उदित होगा और संसार के सभी जीवों के प्रति मैत्रीभाव उनमें परिणत होगा। मैत्री के बिना समता नहीं आती और समता के बिना ही सामायिकसे कोई लाभ नहीं होता । क्षमा और समता के बिना धर्म का एक अंश भी हममें टीकता नहीं। इसलिए मैत्री या क्षमा धर्म के केंद्रबिंदू है। जैसा कहा जाता है कि - एक म्यानमें दो तलवार एक साथ नहीं रह सकती है इसी तरह प्रेम और वैर, मैत्री और वैर एकसाथ एक व्यक्ति में कभी भी नहीं रह सकते हैं। वैर झेर से तो भव परंपरा या संसार बिगड़ता है, जबकि मैत्री भावना से संसार सुधरता है - भवकट्टी होती है। प्रेम मैत्री का जनक है लेकिन विशुद्ध और नि:स्वार्थ प्रेम होना चाहिए । संसारके सभी लघु, गुरु जीवों के प्रति मैत्री भावना व्यापक रुप से रखनी चाहिए मैत्री भावना वाले आराधक के मनमें विश्वमांगल्यता के उत्तमभाव होने चाहिए। वह तो यह सोचता है कि इस (२२५)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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