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________________ चारों भावनाओं में क्रमव्यवस्था - ___ ज्ञानियोने सम्यकत्व की चार भावनाएं बहुत ही वैज्ञानिक और तर्क संगत पद्धति से निरुपित की है। प्रथम मैत्री भावना, दूसरी प्रमोद भावना, तीसरी करुणा भावना, चौथी मध्यस्थ भावना। १७९ भावनाओं का इस क्रमसे जो निरुपण किया गया है वह रहस्यात्मक है। प्रथम भावना से दूसरी भावना, दूसरी से तीसरी और तीसरी से चौथी इसी तरह प्रत्येक भावनामें विषय लघु हो जाता है। यदि विरुद्ध क्रमसे देखा जाए तो प्रत्येक भावना का विषय व्यापक और बृहद् होता जाता है। मैत्री भावनामें विश्व के लघु, गुरु सभी प्रकार के जीव का मिलन होता है। इसलिए शास्त्रकारोने बताया है कि, चारों गति और पाँचों जाति के सभी जीवों की ओर मैत्री भावना रखनी चाहिए। प्रमोद भावना तो गुणीजन की ओर ही रखने की है, करुणा भावना दीन और दु:खितों की ओर रखने की है। माध्यस्थ भावना तो मात्र पापवृत्तिवाले जीवों की ओर रखने की है। १७५ मैत्री भावनामें बाकी तीनों भावनाओं का मिलन हो जाता है। प्रमोद में पीछे की दो, करुणामें माध्यस्थ और इसी तरह चारों की मैत्री भावना ही बनती है। मैत्री भावना के साथ करुणा का गाढ़ संबंध है लेकिन सर्वत्र यह नहीं चल सकता है। इनसे हम कह सकते है कि - करुणा भावना मैत्री भावना जैसी व्यापक नहीं है। अध्यात्म साधना के क्षेत्रमें भी सबसे अधिक महत्त्व मैत्री भावना को ही दिया गया है। 98 मैत्री आदि चारों भावनाओं का संक्षेपमें निरुपण - १) मैत्री भावना - ___ “स्वसुख प्राप्ति तथा स्वदुःखनिवृत्ति” - इन दोनों से संबद्ध तीव्र संक्लेश मिटाने का एक ही अन्य उपाय हैं, मैं सुखी बनें, इस इच्छा के स्थान पर मानव सभी सुखी बनें - इस भावना का सेवन करें यह मैत्री भावना है।१७८ मैत्री परेषां हितचिंतन यद दूसरों की हितचिंता करना और दूसरों के लिए मंगल कामना करना यह मैत्री है ।१७९ मानव का हृदय यदि मैत्री भावना से सभर हो जाएगा तो उसकी आत्म समृद्धि में बहुत प्रगती होगी।१८० आत्मा की विशुद्धि ही मैत्री का मुख्य कारण है। ज्यों -ज्यों आत्मा की विशुद्धि होती जाती है, त्यों त्यों मैत्री की भी वृद्धि होती जाती है। मैत्री की वृद्धि आत्मा का (२२४)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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