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________________ १) मैत्रीभावना - अरिहंता मंगल, लोकोत्तम और शरण २) प्रमोदभावना - सिद्ध मंगल, लोकोत्तम और शरण ३) करुणभावना - साधु मंगल, लोकोत्तम और शरण ४) माध्यस्थ भावना - धर्म मंगल, लोकोत्तम और शरण अरिहंत परमात्मा की मैत्री भावना सर्वोच्च है। मैत्री भावना से ही अरिहंत बने है। सभी सिद्ध गुण के भंडार है। अनंतगुणी है। उनके गुणों को ग्रहण करना प्रमोद भावना है।सभी साधु भगवंतो को सभी जीवों के प्रति अपार करुणा होती है। मुनिवर परम दयालु, भवि और धर्म बुद्धि ही उपेक्षणीय जीवों के प्रति माध्यस्थ भावना रखने का सीखायेंगे। ४ भावना ४ धर्म १) मैत्रीभावना सम्यग् दर्शन २) प्रमोदभावना - सम्यग् ज्ञान करुणभावना सम्यग् चारित्र ४) माध्यस्थ भावना - सम्यग् तप सम्यग् दर्शन रूप धर्ममें अनुपम श्रद्धा में सभी जीवों के प्रति मैत्री भाव होना चाहिए । सम्यकत्वी मैत्री भावनावालाही होना चाहिए। ज्ञान यह गुण है। ज्ञान गुणवाले ज्ञानी के प्रति प्रमोद भावना व्यक्त करने से ज्ञान गुण की प्राप्ति होती है। चरित्रधर्म की साधना के लिए जीवमात्र के प्रति करुणा होनी चाहिए और तप धर्म दूसरों के प्रति माध्यस्थता सीखाता है। ४ भावना ४ धर्म मैत्रीभावना दानधर्म २) प्रमोदभावना - शियल धर्म ३) करुणाभावना - भावधर्म ४) माध्यस्थ भावना - तप धर्म मैत्री भावना होगी तो ही दया - दान धर्म होगा। शियल अर्थात ब्रह्मचर्य । ब्रह्म आत्म स्वरुपमें रमण करने के लिए प्रमोद भावना ब्रह्मचारियों के गुणों को अपने में आकर्षित करती है। जीव मात्र पर करुणाभाव रखना यही अपनी करुणा है और माध्यस्थ भावना स्वयं के तपधर्म की आराधना निर्विघ्न पूरी करना ।१७४ (२२२)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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