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ये चार भावनाओं धर्मध्यान की सिद्धि के लिए परम सहायक है। इसलिए कहा गया है कि- ये भावनाओं भवनाशीनी है। भावना भाव शुद्धि के लिए उपकारक है। ध्यान मन का विषय है और भावना भी मन का विषय है। ध्यान मनको स्थिर करता है, एकाग्र करता है। मनको केंद्रित करता है । भावना मनको शुद्ध करती है। मन के राग -द्वेष आदि बाधाओं निकालके ध्यान के लिए शुद्ध भूमि तैयार करने का श्रेय मैत्री आदि चार भावना को मिलता है। आचार्य हेमचंद्राचार्य ने योगशास्त्र में लिखा है कि - मैत्री आदि चार भावनाओं ज्ञान के लिए महान साधक सिद्ध हो सकती है।
टुटे हुए ध्यान को पुन: ध्यानान्तर के साथ जोड़ने के लिए ये चार भावनाओं परम आवश्यक है। जिस तरह वृद्धावस्था से पीडित दूबले शरीर को शक्ति प्रदान करने के लिए रसायन उपकारक सिद्ध होता है। इसी तरह धर्मध्यान करते हुए यदि आराधक आत्मा की धारा खंडित हो जाती है. त्रटित हो जाती है तो उसे जोड़ने के लिए ये चार भावनाओं आत्मा के लिए रसायन का काम करती है ।१६९ और साधक को ध्यान में लीन बना देती है। परभावमें चले गये आत्मा को पुन: स्वभाव में स्थित करती है। इसलिए इन भावनाओं को ध्यान की अनुसाधिका कहा गया है ।१७०
शांत सुधारस के रचियता विनय विजयजी महाराज साहेब ने चार भावना के स्वरुप के बारेमें लिखा है -
संसार के सभी जीवों के हितका चिंतन करना मैत्री भावना है। गुणवान - गुणीजनों के गुण का अनुग्राही बनना प्रमोद भावना है और दीनदुःखी एवं पीड़ित जीवों के प्रति अनुकंपा उत्पन्न करना कारुण्य भावना है और जो जीव दुष्ट बुद्धिवाला है, बार बार समझाने पर भी जो दुष्टता का त्याग नहीं करता है, ऐसे जीवों के प्रति उपेक्षा दृष्टि से देखना यह माध्यस्थ भावना है ।१७१
इसी बात को दूसरे शब्दोंमें पूज्य विनय विजयीने इस प्रकार लिखा है - हमसे जो पर सभी जीव हैं उनके हित की चिंता करना मैत्री भावना है। दूसरे का दु:ख किस तरह नष्ट होवें, कोई भी व्यक्ति दु:खी न होने पाये यह भावना करुणा भावना है। ___ इसी बात को दूसरे शब्दों में पूज्य विनय विजयजीने इस प्रकार लिखा है - हमसे जो पर सभी जीव हैं उनके हित की चिंता करना मैत्री भावना है। दूसरे का दु:ख किस तरह नष्ट होवें, कोई भी व्यक्ति दु:खी न होने पाये यह भावना करुणा भावना है। अन्य के सुख देखकर आनंदित होना यह प्रमोद भावना है और दूसरों के दोषोंकी अपेक्षा करना माध्यस्थ भावना है ।१७२
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