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बारह वैराग्य भावनाओं के साथ साथ चार भावनाओं और भी है। कुछ ग्रंथोंमें तो सोलह भावनाओं का उल्लेख मिलता है, तो कहीं - कहीं ग्रंथोमें मैत्री आदि चार भावनाओंका स्वतंत्र रुपमें उल्लेख किया गया है। पातंजल योगसूत्र में भी इन भावनाओं का विस्तार के साथ विवेचन किया गया है। मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन भावनाओं के आधार पर सुख-दुख, पुण्यपाप आदि विषयोंका चिंतन करने से चित्तमें प्रसन्नता और आल्हाद की जागृती होती है।
१००८ आचार्य सम्राट पू. श्री. आनंदऋषीजी म. लिखते है कि - योगसाधनामें मैत्री प्रमोद आदि भावनाओं की विशिष्ट साधना प्रक्रिया चलती है। ऐसा लगता है कि - इन चार योग भावनाओं को ही योग की आठ दृष्टियों के रुप में आचार्य हरिभद्र ने नई परिभाषाओं के साथ प्रस्तुत किया है।१६५
प्रारंभ की बारह भावनाओंका सीधा संबंध वैराग्य, निर्वेद से है और इन चार भावनाओं का संबंध ज्ञान को पुष्ट करना मान ले तो कूल भावनाओंकी फलश्रुति इस प्रकार हो जाती है। ज्ञान, दर्शन एवं चरित्र के विशुद्ध संस्कारों को स्थिर करना भावना का फल है। क्यों कि मैत्री आदि भावनाएँ एक प्रकार से ज्ञानयोग की भावनाओं हैं। इसका विस्तृत वर्णन निम्नलिखित हैं।
उपाध्याय विनयविजयजीने शांतसुधारसमें मैत्रीभावना का विवेचन करते हुए लिखा है कि - हे आत्मन ! तू सर्वत्र मैत्री की उपकल्पना कर, अनुत्प्रेक्षा कर / इस जगत में मेरा कोई शत्रु नहीं है ऐसा अनुचिंतन कर । यह जीवन कितने दिनोंतक स्थायी रहनेवाला है ? इसमें तू दूसरों के प्रति शत्रु - बुद्धि रखकर क्यों खिन्न हो रहा है। १६६
___ इन चार योगोन्मुखी भावनाओं का व्यवस्थित वर्णन सर्व प्रथम आचार्य उमास्वाती ने तत्वार्थ सूत्रमें किया है - वह इस प्रकार है -
मैत्रीप्रमोद कारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्वगुणाधिक क्लिश्यमाताविनेयेषु ।१६७ १) समस्त प्राणियों के प्रति - मैत्री भावना, २) गुणाधिक जनों के प्रति - प्रमोद भावना ३) दुःखी जनों के प्रति - कारुण्यभावना ४) प्रतिकूलवर्ती लोगों के प्रति - माध्यस्थ भावना।
इसी को स्पष्ट करते हुए आचार्य अमितगतिने कहा है - सत्वेषु मैत्री, गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेष जीवेषु कृपा परत्वं । माध्यस्थ्यभावं विपरीत वृत्तो, सदा ममात्मा विदधातु देव ।१६८
जीवमात्र के प्रति मैत्री, गुणीजनों के प्रति गुणानुराग, दु:खी जीवों के प्रति करुणा तथा विपरीत वृत्तिवालों के प्रति माध्यस्थ भावना सदा बनी रहें।
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