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________________ नवकार मंत्र में चार भावनाओं का समन्वय : - मानव जीवन शुभ और अशुभ भावों का मिश्रण है । प्रत्येक व्यक्ति यह चाहता है कि • उसके मनसे बूरे भाव बिदा हों और शुभ भावोंका आगमन हो ऐसी झंखना निरंतन बनी रहती है | साधक की उन्नति के लिए शास्त्रकारोने बताया है कि जीव को सदा कुत्सित भावनाओं का त्याग करके उत्तम भावनाओं भानी चाहिए । अकेला नमस्कार महामंत्र भी मनुष्य को अशुभ भावना से बचाने में समर्थ हैं और इसके साथ जब मैत्री आदि मंगलभावनाओं का समन्वय होता है तब साधक को महामंगलकारी और कल्याणकारी भावोंकी प्राप्ति सहज ही हो जाती है। सुवर्ण में सुगंध की तरह नवकार मंत्र में मैत्री आदि चार भावनाओं का संगम परम उत्कर्षकारी और परम आनंद दायक सिद्ध होता है । मनुष्य उत्कर्ष जगाने हेतु भावनाओंका एक मार्ग जैनधर्म में बताया गया है, जिसे भावना - योग भी कहा गया है । उसका लक्ष्य मानव को उत्तम भावनाओं के साथ जोड़ना है। एकत्व अन्यत्व आदि बारह ९६४ भावनाओं का वहाँ चित्रण किया गया है । उत्तम भावों के नवनीत के रूपमें चार भावनायें - मैत्री प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थका विशेषरुप से उल्लेख हुआ हैं । जैन दर्शन में बारह प्रकार की वैराग्य भावनाओंके अतिरिक्त प्राचीन ग्रंथोंमें कुछ अन्यभावनाओंका वर्णन भी किया गया है। कहीं मैत्री, प्रमोद आदि चार योग भावनाओंका कहीं, सत्व, तप, आदि पाँच भावनाओं का और कहीं ज्ञान, दर्शन आदि चार भावनाओंका वर्णन मिलता है । इनमें मैत्री आदि चार भावनाओं जीवन व्यवहार एवं योग साधना की श्रेष्ठतम भावनाओं कही जा सकती है। वैराग्य भावनाओं (बारह भावनाओं) जहाँ एकांत निर्वेद मूलक एवं निवृत्ति प्रधान है, वहाँ ये चार भावनाओं जीवन की प्रवृत्तियों को सत् की ओर प्रेरित करनेवाली है । वास्तवमें ये न केवल श्रमण या श्रावक के लिए ही है किंतु प्रत्येक मानव के लिए उपयोगी तथा आवश्यक है । हम इन्हें योग भावना कह सकते हैं । शक्यता यह है कि इन चार भावनाओं के आधार पर ही मानव जीवन का कर्मयोग सुंदररीतिसे चल सकता है। हृदय को वैराग्यरस में सराबोर करनेवाली बारह भावनाओं का चिंतन अनेक मनिषियोने दर्शाया है। इन भावनाओं के सतत् चिंतन, मनन, एवं अनुशीलन से हृदय एक प्रकार की निवृत्ति तथा परम शांति का अनुभव करने लगता है । मन के विकार क्रोध, मान, माया, लोभ, ममत्व, मोह, शरीर एवं धन के प्रति आसक्ति स्वतः क्षीण होने लगती है और वैराग्य की जागृति होती है इसलिए इन भावनाओं का सतत् चिंतन जीवनमें आवश्यक है । (२१८)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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