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________________ ८. कषाय- प्रत्याख्यान - १६० सामान्यरूप से कषाय को संयमी, साधक जीतता है ही, जिससे साधक कर्मों का बंध नहीं करते कषायों पर विजय प्राप्त करनेसे उसे मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषयके प्रति ममत्व या द्वेष नहीं होता । इस प्रकार उत्तराध्यन में प्रत्याख्यानों के प्रकार व उसके फल निरूपित किये है। प्रत्याख्यान से भविष्यमें होनेवाले पापकृत्य रूक जाते है, और साधक जीवन संयम के सुहावने आलोक से जगमगाने लगता है । १६१ इस प्रकार षडावश्यक साधकके लिए अवश्य करणीय है । साधक चाहे श्रावक हो अथवा श्रमण, वह इन क्रियाओं को करता ही है। हाँ, इन दोनों की गहराई और अनुभूति में तीव्रता, मंदता हो सकती है और होती है। श्रावक की अपेक्षा श्रमण इन क्रियाओं को अधिक तल्लीनता के साथ कर सकता है क्योंकि वह संसार त्यागी है, आरंभ-समारंभ से सर्वथा विरत हैं । इसी कारण उसकी साधना में श्रावक की अपेक्षा अधिक तेजस्विता होती है । षडावश्यकों का साधक के जीवनमें बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। आवश्यक से जहाँ आध्यात्मिक शुद्धि होती है वहाँ लौकिक जीवनमें भी समता, नम्रता क्षमाभाव आदि सद्गुणों की वृद्धि होने से आनंद के निर्मल निर्झर बहने लगते है । - नमस्कार महामंत्र और षडावश्यक एक दूसरे से अभिन्न है । जैन धर्म के किसी भी अनुष्ठानमें या तो किसीभी आवश्यक कार्य के प्रारंभ से नमस्कार महामंत्र का जप या तो उच्चार अनिवार्य है । प्रत्येक आवश्यक में नवकारमंत्र का कोई न कोई पद समाविष्ट हुआ है। नवकार मंत्र का अंतिम लक्ष्य ही पांच परमेष्टि को नमस्कार करके उनके महान गुणों का साधक में भी प्रगटीकरण है। ऐसी मंगल भावना व्यक्त की गई है। प्रत्येक आवश्यक का फल भी महान है। एक पदके उच्चारण मात्रसे महान लाभ होता है। षडावश्यक में से किसी भी आवश्यक में नवकारमंत्र संलग्न ही है । इतना ही नही नवकारमंत्र के बिना किसी भी आवश्यक का हमें फल भी प्राप्त नहीं हो सकता है । १६२ धर्म उत्कृष्ट मंगल है। १६३ जैन धर्म किसी लौकिक फलकी प्राप्ति का इच्छुक नहीं है अर्थात् लोकोत्तर गुण या तो लोकोत्तर मांगलिक जीव को प्राप्त हो ऐसी उदात्त भावना प्रत्येक आवश्यक के साथ दर्शायी गई है। नवकारमंत्र का अंतिम उद्देश्य भी सभी पापों नाश करना - किसी एक जन्म के नहीं, अनेक जन्मों के कर्मोंका का क्षय करना दर्शाया गया । साधक पूरी श्रद्धा से किसी भी आवश्यक और नवकार मंत्रकी प्रवृत्ति करेगा तो वह परमशांति और उत्तम सुख अवश्य प्राप्त कर सकेगा । (२१७)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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