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रागभावना को लेकर प्रत्याख्यान करना। २) मैं ऐसा प्रत्याख्यान करूँ जिसके कारण जिन्होंने प्रत्याख्यान ग्रहण किया है, उनकी
कीर्ति धुंधली हो जाए । इस प्रकार दूसरों के प्रति दुर्भावनासे प्रेरित प्रत्याख्यान
करना। इस प्रकारमें तीव्र द्वेष प्रगट होता है। ३) इस लोक में मुझे यश प्राप्त होगा और परलोकमें भी मेरे जीवन में सुख और शांति
रहेगी इस भावना से प्रेरित होकर प्रत्याख्यान करना इसमें यश की अभिलाषा वैभव
प्राप्ति की कामना आदिक समावेश हुआ है। शिष्यने जिज्ञासा प्रस्तुत की गुरूदेव किस साधक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है ? और किस साधक का प्रत्याख्यान दुष-प्रत्याख्यान है ? भगवान ने समाधान किया - जिस साधक को जीव अजीवका परिज्ञान है, प्रत्याख्यान किस उद्देश्य से किया जा रहा है, जिसकी पूर्ण जानकारी है, उस साधक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है। जिस साधक को जीवअजीवका परिज्ञान नही है, जो अज्ञानकी प्रधानता के कारण प्रत्याख्यान करता हुआ भी प्रत्याख्यान के मर्म को नहीं जानता। उसका प्रत्याख्यान दूषप्रत्याख्यान है, अत: ऐसा प्रत्याख्यान करनेवाला । उसंयत है, अविरत है और एकांत बाल है। १५०
प्रवचनसारोद्धार,१५१ योगशास्त्र, १५२ आदि ग्रंथोमें प्रत्याख्यान ग्रहण करनेवाले साधक और ग्रहण करनेवाले साधक की योग्यता और अयोग्यता को लक्ष्य में रखकर चतुर्भगी का प्रतिपादन किया है - १. प्रत्याख्यान ग्रहण करनेवाला साधक भी विवेकी हो और प्रत्याख्यान प्रदाता गुरू
भी गीतार्थ हो तो वह पूर्ण शुद्ध प्रत्याख्यान है। २. प्रत्याख्यान ग्रहण करनेवाला प्रत्याख्यान के रहस्यको नहीं जानता पर प्रत्याख्यान
प्रदान करनेवाला गुरू प्रत्याख्यान के मर्म को जानता है और वह प्रत्याख्यान करनेवाले शिष्य को प्रत्याख्यान का मर्म सम्यक् प्रकारसे समझा देता है तो शिष्य का प्रत्याख्यान सही प्रत्याख्यान हो जाता है। यदि वह उसके मर्म को नहीं समझता
है तो उसका प्रत्याख्यान अशुद्ध प्रत्याख्यान हैं। ३. प्रत्याख्यान प्रदान करनेवाला गुरू प्रत्याख्यान के मर्म को नहीं जानता है किंतु जो
प्रत्याख्यान ग्रहण कर रहा है वह प्रत्याख्यान के रहस्य को जानता है, तो वह प्रत्याख्यान शुद्ध प्रत्याख्यान है। यदि प्रत्याख्यान ज्ञाता गुरू विद्यमान हो, उनकी उपस्थिति में भी
परम्परा आदि की दृष्टि से अगीतार्थ से प्रत्याख्यान ग्रहण करना अनुचित है। ४. प्रत्याख्यान ग्रहण करनेवाला प्रत्याख्यानके मर्म को नही जानता और जिससे
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