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अंतर्गत नवकारसी, पोरसी आदि दश प्रत्याख्यान आते हैं। अद्धा का अर्थ काल हैं। आचार्य अभयदेवने अद्धा का अर्थ पोरसी आदि कालमान के आधार पर किया जानेवाला प्रत्याख्यान कहा है।
साधना के क्षेत्रमें प्रत्याख्यान का विशिष्ट महत्त्व रहा है। प्रत्याख्यानमें किसीभी प्रकार का दोष न लगें, इसके लिए साधक को सतत् जागृत रहना चाहिए। जागृत रहने के लिए छह प्रकारकी विशुद्धि का निरूपण किया गया है। ये विशुद्धियाँ निम्नांकित है - १) श्रद्धान विशुद्धि :
पंचमहाव्रत, १२ व्रत, आदि रूप जो प्रत्याख्यान है उसका श्रद्धा के साथ पालन करना। २) ज्ञान विशुद्धि :
जिन कल्प, स्थविर कल्प, मूलगुण, उत्तरगुण आदि जिस प्रत्याख्यान का जैसा स्वरूप है, उस स्वरूप को यथार्थ रूप से जानना। ३) विनय विशुद्धि : ___मन, वचन और काया सहित प्रत्याख्यान होता है। प्रत्याख्यानमें जितनी वंदनाओंका विधान है, उतनी वंदना अवश्य करनी चाहिए। ४) अणुभाषणा विशुद्धि : __ प्रत्याख्यान ग्रहण करते समय सद्गुरू के सन्मुख विनय मुद्रामें खड़े रहकर शुद्ध पाठ का उच्चारण करे। ५) अनुपालना शुद्धि :
भयंकर वनमें या दुर्भिक्ष आदि में या रुग्ण अवस्थामें व्रत का उत्साहके साथ सम्यक् प्रकार से पालन करें। ६) भावविशुद्धि :
राग-द्वेष रहित पवित्र भावना से प्रत्याख्यान का पाठ करना
आवश्यक नियुक्ति में आचार्य भद्रबाहुने लिखा है कि - प्रत्याख्यानमें तीन प्रकार के दोष लगनेकी संभावना रहती है। वे दोष इस प्रकार है ।१४९ १) अमुक व्यक्तिने प्रत्याख्यान ग्रहण किया है जिसके कारण उसका समाजमें आदर
हो रहा है । मैं भी उस प्रकार का प्रत्याख्यान करूँ जिससे मेरा आदर हो ऐसी
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