________________
६) प्रत्याख्यान :
छठे आवश्यक का नाम प्रत्याख्यान है । प्रत्याख्यान का अर्थ हैं - त्याग करना -१३९ प्रत्याख्यान शब्द की रचना प्रति, आ, और ख्यान इन शब्दों के संयोग से होती है अविरति - असंयम के प्रतिकूल रूप में मर्यादा के साथ प्रतिज्ञा ग्रहन करना प्रत्याख्यान हैं । १४० दूसरे शब्दोंमे करे तो आत्मस्वरूप के प्रति अभिव्याप्त रूप से, जिससे अनाशंषा गुण समुत्पन्न हो, इस प्रकार कथन करना प्रत्याख्यान है, और भी अधिक स्पष्ट शब्दोंमे कहे तो भविष्यकाल के प्रति मर्यादा के साथ अशुभ योग से निवृत्ति और शुभ योग में प्रवृत्तिकरना प्रत्याख्यान हैं ।
मानवकी इच्छाएं असीम है । ९४९ वह सभी वस्तुओं को पाना चाहता हैं । इच्छाऐं सतत् बढ़ती रहती है और इच्छाओं के कारण मानव के मन के भीतर सदा अशांति रहती है । उस अशांति को नष्ट करने का एक मात्र उपाय प्रत्याख्यान है । प्रत्याख्यान में साधक अशांति का मूल कारण आसक्ति और तृष्णाकों नष्ट करता है।
अनुयोगद्वारा सूत्रमें प्रत्याख्यान का एक नाम 'गुणधारण' दिया गया है। गुणधारण का अर्थ है- व्रतरूपी गुणों को धारण करना । मन, वचन और कायाके अशुभयोगो को रोक कर शुभ योगो में प्रवृत्तिको केंन्द्रित किया जाता हैं । इस प्रवृत्ति से इच्छा का निरोध होता है, तृष्णाए शांत हो जाती है, अनेक सद्गुणों की उपलब्धि होती है, आचार्य भद्रबाहुने लिखा है
प्रत्याख्यान से संयम होता है । संयम से आश्रव का निरूंधन होता है और आश्रव के निरूंधन से तृष्णाका अंत हो जाना है । १४३ तृष्णाके अंत से अनुपम उपशम भाव समुत्पन्न होता है और उससे प्रत्याख्यान विशुद्ध बनता है । १४३
-
उपशमभाव की विशुद्धिसे चारित्रधर्म प्रगट होता, चारित्र से कर्मनिर्जिर्ण होते है । उसके होने से केवलज्ञान, केवलदर्शन का दिव्य आलोक जगमगाने लगता है और शाश्वत मुक्ति रूपी सुख प्राप्त होता है। १४४
प्रत्याख्यान के मुख्य दो भेद है । १ ) मुलगुण प्रत्याख्यान और २) उत्तरगुण प्रत्याख्यान । मुलगुण प्रत्याख्यान यावत् जीवन के लिए ग्रहण किया जाता है। इसके दो उपभेद हैं १) सर्वमूलगुण प्रत्याख्यान और २ ) देशमूलगुण प्रत्याख्यान ।
सर्वमूलगुण प्रत्याख्यानमें श्रमण के पांच महाव्रत आते है और देशमूलगुण प्रत्याख्यानमें श्रमणों पासक के पांच अणुव्रत आते है ।
उत्तर गुण प्रत्याख्यान
प्रतिदिन ग्रहण किया जाता है या तो कुछ दिनोकें लिए ग्रहण किया जाता है। इसके
-
(२११)