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समाप्त होकर उसमें तीक्ष्णता आती है। ३) सुख - दुख तितिक्षा : कायोत्सर्ग से सुख-दुःखसहन करने की अपूर्व क्षमता प्राप्त होती है। ४) अनुप्रेक्षा : कायोत्सर्ग में अवस्थित व्यक्ति अनुप्रेक्षा या भावनाका स्थिरतापूर्वक अभ्यास करता है। ५) ध्यान : कायोत्सर्ग में शुभ ध्यान का सहज अभ्यास हो जाता है । कायोत्सर्ग में शारीरिक चंचलता के विसर्ग के साथ ही शारीरिक ममत्व का भी विसर्जन होता है, जिससे शरीर और मनमें तनाव उत्पन्न नहीं होता। शरीर शास्त्रियों का मानना है कि - तनावसे अनेक शारिरीक और मानसिक व्याधियाँ समुत्पन्न होती है। उदाहरणार्थ शारीरिक प्रवृत्ति से -
१) स्नायु में शर्करा कम हो जाती है। २) लैक्टिक एसिड स्नायुमें एकत्रित होती है। ३) लैक्टिक एसिड की अभिवृद्धि होने पर शरीर में उष्णता बढ़ जाती है। ४) स्नायुतंत्र में थकान का अनुभव होता है। ४) रक्त में प्राणवायु की मात्रा न्यून हो जाती है - किंतु कायोत्सर्ग से - १) ऐसिड पुनः शर्करामें परिवर्तित हो जाता है। २) लैक्टिक एसिड का स्नायुओंमें जमाव न्यून हो जाता है। ३) लैक्टिक ऐसिड की न्यूनता से शारीरिक उष्णता न्यून होती है। ४) स्नायुतंत्र में अभिनव ताजगी आती है। ५) रक्त में प्राणवायु की मात्रा बढ़ जाती है। ___ इस प्रकार स्वास्थ्य की दृष्टिसे कायोत्सर्ग का अत्यधिक महत्त्व है। मन, मस्तिष्क और शरीरका परस्पर गहरा संबंध है। जब इन तीनों में सामंज्यस्य नही होगा तब तनाव होते है। कायोत्सर्ग तनावको दूर करने का एक सुंदर उपाय है। ___कायोत्सर्ग में सर्व प्रथम शिथिलीकरण की आवश्यकता है। यदि बैठे बैठे ही साधक कायोत्सर्ग करना चाहता है तो वह सुखासन या पद्मासन से बैठे। फिर रिढ़ की हड्डी और गरदन को सीधा करें कै उसमें झुकाव या तनाव न हो। आंगोपांग शिथिल सीधे और सरल रहे । उसके पश्चात् दीर्घ श्वास ले। बिना कष्ट के जितना लंबा श्वास ले सके उतना लंबा लेने का प्रयास करे । इससे शरीर और मन इन दोनों के शिथिलीकरण मे बहुत सहयोग मिलेगा। इस प्रकार शारीरिक अवयव के शिथिल हो जाने से स्थूल शरीर से संबंध विच्छेद
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