________________
यह शरीर क्षणभंगुर है, कब नष्ट हो जाए, कहा नहीं जा सकता । कायोत्सर्ग में जब साधक अवस्थित होता है तब वह देह में रहकर भी देहातीत स्थितिमें रहता है । किसी भी उपसर्ग को वह शांत भावसे सहन करता है। आचार्य धर्मदासने उपदेशमाला ग्रंथमें लिखा है कि - कायोत्सर्ग के समय प्रावरण (आवरण) नहीं रखना चाहिए।
कायोत्सर्ग में साधक चट्टान की तरह पूर्णरुप से निश्चल, निष्पंद होता है। जिनमुद्रामें वह शरीर का ममत्व त्याग कर आत्मभाव में रमण करता है। आचार्य भद्रबाहु ने लिखा है - कायोत्सर्ग की स्थिति में साधक को यदि कोई भक्तिभावसे चंदन लगाये या कोई द्वेषपूर्वक लगाये, शरीर छेदन करें, चाहे उसका जीवन रहे अथवा मृत्यु वरण करना पड़े - वह सब स्थितियों में सम रहता है। तभी कार्य विशुद्ध होता हैं । ११६ कायोत्सर्ग के समय, देव, मानव और तिर्यंच संबंधी सभी प्रकार के उपसर्ग उपस्थित होने पर जो साधक उन्हें समभाव पूर्वक सहन करता है, उसीका कायोत्सर्ग वस्तुतः सही कायोत्सर्ग है । ११७
कायोत्सर्ग में खांसी, छींक, डकार, मूर्छा आदि विविध शारीरिक व्याधियाँ हो सकती है तो भी कार्योत्सर्ग का भंग नहीं होता क्योंकि कायोत्सर्ग का मूल उद्देश्य समाधि है। यदि समाधि भंग होती है तो आर्त और रौद्र ध्यान में परिणत होती है । यह परिणति कायोत्सर्ग को भंग कर देती है। जिस कायोत्सर्ग में समाधि की अभिवृद्धि होती है वह कायोत्सर्ग ही हितावह है। योत्सर्ग का अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि शारीरिक चंचलता का त्याग कर वृक्ष की भाँति या पर्वत की तरह या सूखे काष्ट की तरह साधक निष्पंद खड़ा हो जाए । शरीर के संबंधित निष्पंदता तो एकेंद्रिय आदि प्राणियों में भी हो सकती है । उसमें जो स्थैर्य है वह अविकसित प्राणी का स्थैर्य है किंतु कायोत्सर्ग में होनेवाला स्थैर्य भिन्न प्रकार का है।
११८
आचार्य जिनदासगणि महत्तर ने कायोत्सर्ग के दो प्रकार बताये हैं । १) द्रव्य कायोत्सर्ग और २) भाव कायोत्सर्ग ११९९
द्रव्य कायोत्सर्ग :
इसमें पहले शरीर का निरोध किया जाता है। शारीरिक चंचलता और ममता का परित्याग कर जिनमुद्रामें स्थिर होना, कायचेष्टा का निरुंधन करना द्रव्य कार्योत्सर्ग है । भाव कायोत्सर्ग :
इसके पश्चात् साधक धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान में रमण करता है । मन को पवित्र विचार और संकल्प से बांधता है, जिससे उसको किसीभी प्रकार की शारीरिक वेदना का अनुभव नहीं होता । वह तन में रहकर भी तन से अलग आत्मभाव में रहता है । इसे भाव
(२०३)