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________________ कायोत्सर्ग: पाँचवा आवश्यक कायोत्सर्ग है। भगवान महावीर को गौतमस्वामीने प्रश्न किया - हे भगवान ! कायोत्सर्ग से जीव को क्या लाभ होता है ? भगवान महावीर ने जवाब दिया - हे गौतम ! कायोत्सर्ग से साधक आत्मा पूर्वजन्मों में किये गये और वर्तमान जीवनमें होनेवाले सभी दोषों से रहित होकर विशुद्धि करता है। विशुद्ध बना साधक जैसे उठाये हुए बोझको उतारकर हलका हो जाता है, वैसे वह कर्म भारके बोझको उतारकर भार मुक्त होकर परमशांत हो जाता है। फिर वह ध्यानावस्थामें स्थिर होकर सुखपूर्वक विचरण करता है ।११० जैन साधना पद्धतिमें कायोत्सर्ग का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान हैं।१११ श्री अनुयोगद्वार सूत्र में कायोत्सर्ग को व्रण चिकित्सा कहा है।११२ काय और उत्सर्ग ये दो शब्द हैं। जिसका तात्पर्य हैं। काय का त्याग और जीवीत रहते हए शरीर का त्याग संभव नहीं है। यहाँ पर शरीर त्याग का अर्थ है - शारीरिक चंचलता और देहासक्ति का त्याग । सतत् सावधान रहनेपर भी प्रमाद आदि के कारण साधनामें दोष लग जाते हैं, भूलें हो जाती हैं। भूलोंरुपी घावों को ठीक करने के लिए कायोत्सर्ग एक प्रकार का मरहम है । वह अतिचार रुपी घावोंको ठीक कर देता है। संयमरुपी वस्त्रपर अतिचारों का मैल लग जाता है, भूलोके दाग लग जाते हैं। उन दागों को प्रतिक्रमण के द्वारा स्वच्छ किया जाता है। प्रतिक्रमणमें भी जो दाग नहीं मिटते उन्हें कायोत्सर्ग द्वारा हटाया जाता है। ___आवश्यक सूत्रमें, कायोत्सर्ग क्यों किया जाता है ? उस पर चिंतन करते हुए लिखा है - संयमी जीवनको अधिकाधिक परिष्कृत करने के लिए, आत्माको माया, मिथ्यात्व और निदान शल्य से मुक्त करने के लिए पाप कर्मों के निर्घात (क्षय) के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है। ११३ कायोत्सर्ग अंतर्मुखी होनेकी पवित्र साधना है । बहिर्मुखी स्थिति से साधक अंतर्मुखी स्थितिमें पहुँचता है और अनासक्त होकर राग-द्वेष से उपर उठ जाता है। कायोत्सर्ग में शरीर की ममता कम होने से साधक शरीर से हटकर आत्मभावमें लीन रहता है। यही कारण है कि - साधक के लिए कायोत्सर्ग दुःखों का अंत करनेवाला बताया गया है। शरीर और वचनके व्यापार को एकाग्रता पूर्वक छोडना, यह व्युत्सर्ग या कायोत्सर्ग है। तत्त्वार्थ में नौ प्रायश्चित में से एक है।१४ षड़ावश्यक में कायोत्सर्ग को स्वतंत्र स्थान दिया गया है। प्रत्येक साधक को यह चिंतन करना चाहिए कि - यह शरीर पृथक है और मैं पृथक हूँ। मैं अजर, अमर, अविनाशी हूँ।११५ “सहजानंदी शुद्ध स्वरुपी, अविनाशी हूँ आत्म स्वरुप ।” (२०२)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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