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शिक्षाव्रतों में लगनेवाले अतिचारों का प्रतिक्रमण व्रती श्रावकों लिए आवश्यक है। जिन साधकों ने संलेखना व्रत ग्रहण कर रखा हो, उनके लिए संलेखना के पांच अतिचारों का प्रतिक्रमण आवश्यक है ।
प्रतिक्रमण जैन साधना का प्राणतत्व है। ऐसी कोई भी क्रिया नहीं जिसें प्रमादवश स्खलना न हो सके । चाहे लघु शंका से निवृत्त होते समय, चाहे शौचनिवृत्ति करते समय, चाहे प्रतिलेखना करते समय, चाहे भिक्षा के लिए इधर, उधर जाते समय साधक को उन स्खलनाओं के प्रति सतत् जागरुक रहना चाहिए। उन स्खलनाओं के संबंध में किंचितमात्र भी उपेक्षा न रखकर उन दोषों से निवृत्ति हेतु प्रतिक्रमण करना चाहिए क्योंकि प्रतिक्रमण जीवन को मांजने की एक अपूर्व क्रिया है ।
Pratikraman means to come back to revert to the truth, retreat from the १०४ wordly wrongs, and proceed towards the truth.
माया
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साधक प्रतिक्रमण में अपने जीवन का गहराई से निरीक्षण करता है, उसके मनमें, वचन में, कायामें एकरुपता होती है। साधक साधना करते समय कभी क्रोध, मान, और लोभ से साधनाच्युत हो जाता है, उससे भूल हो जाती है तो वह प्रतिक्रमण के समय अपने जीवनका गहराई से अवलोकन कर एक एक दोष का परिष्कार करता है । यदि मनमें छिप हुए दोष को लज्जा के कारण प्रकट नहीं कर सका, उन दोषों को भी सद्गुरु के समक्ष या भगवान् की साक्षी से प्रकट कर देता है। जैसे कुशल चिकित्सक परीक्षण करता है और शरीर में रही हुई व्याधि को एक्स-रे आदि के द्वारा बता देता है, वैसे ही प्रतिक्रमणमें साध प्रत्येक प्रवृत्ति का अवलोकन करते हुए, उन दोषों को व्यक्त कर हलका बनता है ।
प्रतिक्रमण साधक-जीवन की एक अपूर्व क्रिया है । यह वह डायरी है जिसमें साधक अपने दोषोंकी सूची लिखकर एक - एक दोष से मुक्त होने का उपक्रम करता है। साधक जब अंतर्निरीक्षण करता है तो उसे अपनी भूल का परिज्ञान होता है । एक सुप्रसिद्ध विचारक फ्रेंकलिन ने अपने जीवनको डायरी के माध्यमसे सुधारा था। उसके जीवनमें अनेक दुर्गुण थे । वह अपने दुर्गुणों को डायरीमें लिखा करता था और फिर गहराई से उनका चिंतन करता था कि इस सप्ताह में मैने कितनी भूलें की हैं। अगले सप्ताह में इन भूलों की पुनरावृत्ति नहीं करूँगा। इस प्रकार डायरी के द्वारा उसने जीवन के दुर्गुणों को धीरे-धीरे निकाल दिया था और एक महान सद्गुणी चिंतक बन गया था ।
प्रतिक्रमण जीवनको सुधारने का श्रेष्ठ उपक्रम है, आध्यात्मिक जीवन की धूरी है । आत्मदोषोंकी आलोचना करने से पश्चात्ताप की भावना जागृत होने लगती है और उस पश्चात्ताप की अग्नि में सभी दोष जलकर नष्ट हो जाते हैं । पापाचरण शल्य के सदृश है, यदि
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