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________________ यश प्राप्ति की अभिलाषा से प्रतिक्रमण करता है। यह प्रतिक्रमण यंत्र की तरह चलता है, उसमें चिंतन का अभाव होता है । पापों के प्रति मनमें ग्लानि नहीं होती । वह पुनः पुनः स्खलनाओं को करता रहता है। वास्तविक दृष्टिसे जैसी शुद्धि होनी चाहिए, वह उस प्रतिक्रमण से नहीं हो पाती। भावप्रतिक्रमण वह है, जिसमें साधक के अन्तर्मानसमें पापों के प्रति तीव्र ग्लानि होती है। वह सोचता है, मैने इस प्रकार स्खलनाएँ क्यों की ? वह दृढ़ निश्चय के साथ उपयोगपूर्वक उन पापों की आलोचना करता है। भविष्यमें वे दोष पुनः न लगें, इसके लिए दृढ़ संकल्प करता है। इस प्रकार भाव प्रतिक्रमण वास्तवमें प्रतिक्रमण है।१०० भावप्रतिक्रमणमें साधक न स्वयं मिथ्यात्व आदि दुर्भावोंमें गमन करता है और न दूसरों को गमन करने के लिए उत्प्रेरित करता है और न दुर्भावों में गमन करने का अनुमोदन करता है।१०१ साधारणतया यह समझा जाता है कि - प्रतिक्रमण अतीतकाल में लगे हुए दोषों की परिशुद्धि के लिए है। पर आचार्य भद्रबाहु १०२ ने बताया कि प्रतिक्रमण केवल अतीत काल में लगे दोषों की ही परिशुद्धि नहीं करता अपितु वह वर्तमान और भविष्य के दोषों की भी शुद्धि करता है। अतीतकाल में लगे हुए दोषों की शुद्धि की आलोचना प्रतिक्रमणगमें की ही जाती है। वर्तमानकाल में भी साधक संवर साधनामें लगा रहने से पापोंसे निवृत्त हो जाता है। साथ ही प्रतिक्रमण में वह प्रत्याख्यान ग्रहण करता है। जिससे भावी दोषोंसे भी बच जाता है। भूतकालके अशुभयोगसे निवृत्ति, वर्तमान में शुभ योगमें प्रवृत्ति और भविष्यमें भी शुभ योगमें प्रवृत्ति करूँगा, इस प्रकार वह संकल्प करता है। कालकी दृष्टि से प्रतिक्रमण के पाँच प्रकार बताये हैं। १) दैवातिक, २) रात्रिक ३) पाक्षिक ४) चातुर्मासिक ५) सांवत्सरिक १) दैवातिक - दिन के अंतमें किया जानेवाला प्रतिक्रमण देवातिक है। २) रात्रिक - रात्रिमें जो भी दोष लगे हों - उनकी रात्रिके अंतमें निवृत्ति करना यह रात्रिक प्रतिक्रमण है। ३) पाक्षिक - पंद्रह दिन के अंतमें अमावस्या और पूर्णिमा के दिन संपूर्ण पक्ष में आचरित पापोंका विचार कर प्रतिक्रमण करना पाक्षिक प्रतिक्रमण है। ४) चातुर्मासिक - चार माह के पश्चात् कार्तिकी पूर्णिमा, फाल्गुनी पूर्णिमा और आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन चार महिनेमें लगे हुए दोषों की आचोलना कर प्रतिक्रमण करना चातुर्मासिक प्रतिक्रमण है। ४) सांवत्सरिक - आषाढ़ी पूर्णिमा के उनपचास या पचासवें दिन वर्ष भरमें लगे हुए (१९८)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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