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________________ सकता। गर्दा में पापों के प्रति तीव्र पश्चाताप होता है। गर्दा पापरुपी विषको उतारनेवाला गारुड़ी मंत्र है, जिसके प्रयोग से साधक पाप से मुक्त हो जाता है । इसलिए गर्दा को प्रतिक्रमण का पर्यायवाची कहा है।९८ ८) शुद्धि - ___ शुद्धि का अर्थ निर्मलता है। जैसे बर्तन पर लगे हुए दाग को खटाई से साफ किया जाता है, सोनेपर लगे हुए मैल को तपाकर शुद्ध किया जाता है, ऊनी वस्त्र के मैल को पेट्रोल से साफ किया जाता है, वैसेही हृदय के मैलको प्रतिक्रमण द्वारा शुद्ध किया जाता है । इसलिए उसे शुद्धि कहा है। आचार्य भद्रबाहु ने साधक को उत्प्रेरित किया है कि - वह प्रतिक्रमण में प्रमुख रुपसे चार विषयों पर गहराई से अनुचिंतन करें। इस दृष्टि से प्रतिक्रमण के चार भेद बनते हैं।९९ १) श्रमण और श्रावक के लिए कम्रश: महाव्रतों और अणुव्रतों का विधान है। उसमें दोष न लगे, इसके लिए सतत् सावधानी आवश्यक है। यद्यपि श्रमण और श्रावक सतत् सावधान रहता है, तथापि कभी-कभी असावधानीवश अहिंसा सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह में स्खलना हो गई हो तो श्रमण और श्रावक को उसकी शुद्धि हेतु प्रतिक्रमण करना चाहिए। २) श्रमण और श्रावकों के लिए एक आचारसंहिता आगम साहित्यमें निरुपित है। श्रमण के लिए स्वाध्याय, ध्यान प्रतिलेखन आदि अनेक विधान है तो श्रावक के लिए भी दैनंदिन साधना का विधान है । यदि उन विधानों की पालनामें स्खलना हो जाए तो उस संबंधमें प्रतिक्रमण करना चाहिए । कर्तव्य के प्रति जरासी असावधानी भी ठीक नहीं है। ३) आत्मा आदि अमूर्त पदार्थों को प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा सिद्ध करना बहुत कठीन है। वह तो आगम आदि प्रमाणों के द्वारा ही सिद्ध किया जा सकता है। उन अमूर्त तत्वोके संबंध में मनमें यह सोचना कि - आत्मा है या नहीं ? यदि इस प्रकार उनमें अश्रद्धा उत्पन्न हुई हो तो उसकी शुद्धि के लिए साधक को प्रतिक्रमण करना चाहिए। ४) हिंसा आदि दुष्कृत्य, जिनका महर्षियोने निषेध किया है, साधक उन दृष्कृत्यों का प्रतिपादन न करें, यदि असावधानीवश प्रतिपादन कर दिया हो तो शुद्धि करें। अनुयोगद्वार सूत्रमें प्रतिक्रमण के दो प्रकार बताये गये हैं । द्रव्यप्रतिक्रमण और भावप्रतिक्रमण । द्रव्यप्रतिक्रमण में साधक एक स्थान पर अवस्थित होकर बिना उपयोग के (१९७)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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