________________
४) प्रतिक्रमण -
चौथा आवश्यक प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण जैन साधना का एक विशिष्ट शब्द है। प्रतिक्रमण का शाब्दिक अर्थ है पुन: लौटना । हम अपनी मर्यादाओंका अतिक्रमण कर, अपनी स्वभावदशासे निकलकर विभाव दशामें चले गये, अत: पुन: स्वभावरुप सीमामें प्रत्यागमन करना प्रतिक्रमण है । जो पाप मन, वचन और काया से स्वयं किये जाते है, दूसरों से करवाये जाते हैं और दूसरोंके द्वारा किये हुए पापोंका अनुमोदन किया जाता है, उन सभी पापोंकी निवृत्ति हेतु, किये गये पापोंकी आलोचना करना, निंदा करना प्रतिक्रमण है। तत्वार्थ में तपके अंतर्गत प्रायश्चित होता है। प्रतिक्रमण यह प्रायश्चित का दूसरा अंग है।८ आचार्य हेमचंद्रने लिखा है - “शुभयोगोंसे अशुभ-योगोमें गये हुए अपने आप को पुनः शुभयोगोमें लौटा लाना प्रतिक्रमण है।"८९ औचार्य आवश्यक हरिभेद्रने वृत्तिमें यही कहा है।९०
नियमों और मर्यादा के अतिक्रमण से पुन: लौटना ही प्रतिक्रमण है। साधना के क्षेत्रमें मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग ये पांचों भयंकर दोष हैं। आत्मामें अनंत कालसे प्रमाद और असावधानी के कारण विकार और वासनाएँ अपना प्रभुत्व जमाए हुए हैं। यदि ऐसा हुआ तो पुन: सम्यक्त्व, व्रत, अकषाय, अप्रमाद और अशुभयोगमें
आना चाहिए। इसी दृष्टि से प्रतिक्रमण किया जाता है। ९१ ____ आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक चूर्णि, आवश्यक हरिभद्रियवृत्ति, आवश्यक मलयगिरि वृत्ति आदि ग्रंथोमें प्रतिक्रमण के संबंधमें बहुत विस्तार के साथ चर्चाएँ की गई हैं। प्रतिक्रमण के आठ पर्यायवाची शब्द भी दिये है, जो प्रतिक्रमण के विभिन्न अर्थों को व्यक्त करते हैं।९२ यद्यापि आठोंका भाव एक ही है किंतु ये शब्द प्रतिक्रमण के संपूर्ण अर्थ को समझने में सहायक हैं। वे इस प्रकार हैं - १) प्रतिक्रमण: -
प्रतिक्रमण ९३ इस शब्दमें 'प्रति’ उपसर्ग है और ‘क्रम' धातु है। ९४ प्रति का तात्पर्य है - प्रतिकूल और क्रम का तात्पर्य है - पदनिक्षेप । जिन प्रवृत्तियों से साधक सम्यग्दर्शन,सम्यज्ञान, सम्यक् चरित्रारुप स्वस्थान से हटकर मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम रुप पर स्थानमें चला गया हो, उसका पुन: आपमें लौट आना प्रतिक्रमण या पुनरावृत्ति है। २) प्रतिचारणा -
प्रतिचारणा५ असंयम क्षेत्र से अलग -थलग रहकर अत्यंत सावधान होकर विशुद्धता