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वैदिक परंपरामें भी वंदन सद्गुणोंकी वृद्धि के लिए आवश्यक माना है। ८३ श्रीमद्भागवत में नवधा भक्ति का उल्लेख है। उस नवधाभक्तिमें वंदन भी भक्ति का एक प्रकार बताया गया है। ८४ श्रीमद् भगवद् गीता के अठारहवें अध्यायमें “मा नमस्कुरु” कहकर श्रीकृष्ण ने वंदन के लिए भक्तोंको उत्प्रेरित किया है। ८५ ___ जैन मनीषीयोने वंदन के संबंध में बहुत ही विस्तार और गहराई से चिंतन किया है। आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक नियुक्ति में वंदन के बत्तीस दोष बताये हैं। उन दोषों से बचनेवाला साधक ही सही वंदन कर सकता है। ८६
उत्तराध्यायन सूत्रमें भगवानर महावीर स्वामीने वंदना से जीव को क्या उपलब्ध होता है ? इस प्रश्न के उत्तर देते हुए कहा - वंदना से जीव नीच गोत्र कर्म का क्षय करता है, उच्च गोत्र का बंध करता है। वह अप्रतिहत सौभाग्य को प्राप्त करता है। उसकी आज्ञा अबाधित होती है तथा दाक्षिण्यभाव (जनता के द्वारा अनुकूलभाव) को प्राप्त करता है। ८७
आवश्यक क्रिया में वंदना आवश्यक का महत्त्वपूर्ण स्थान है क्योंकि अरिहंतों के पश्चात् गुरुदेव ही आध्यात्मिक साम्राज्य के अधिपति है, उनको वंदन करना भगवान को वंदन करने के समान है। इतना ही नहीं है जैन धर्म की यह महत्ता है कि - गुरु को दो बार वंदना करने का उल्लेख किया गया है, गुरू वंदना को उत्कृष्टी वंदना कहा गया है। सबसे पहले वंदना करने के पहले गुरु की आज्ञा लेनी पड़ती है और आज्ञा पाकर शिष्य पंचांग नमस्कार करके गुरुके चरणों का स्पर्श करता है और नम्रता से कहता है कि इस तरह वंदना करने से आपको किसी भी प्रकार का कष्ट पहुँचा हो तो आप मुझे क्षमा करें।
वंदना देव और गुरु को की जाती है। श्रावक और श्राविकाएँ दैनिक क्रिया में तिक्खुत्ता के पाठद्वारा गुरुके श्री चरणोंमें तीन बार वंदना करता है। सभी आवश्यक क्रियाओंके प्रारंभमें भी तीन बार वंदना करने को बताया गया है। लेकिन प्रतिक्रमण आवश्यकमें गुरुवंदना सूत्र के द्वारा दो बार गुरु वंदन पाठ का अध्ययन करने को कहा गया है। ऐसा माना गया है कि - सिर्फ एक बार पाठ करने से गुरू के प्रति हमारा पूज्यभाव या आदर भाव पूर्णरूप से प्रकट नहीं होता है। कभी - कभी तो मन की एकाग्रताका भी अभाव होता है, इसलिए दो बार पाठ करने से मनकी एकाग्रता बढ़ जाती है। संसारिक चिंताओंसे अलग हो जाते हैं और हमारा समर्पण भाव वृद्धिंगत होता है। जैन दर्शन की मान्यता के अनुसार आध्यात्मिक जगत के हमारे सबसे बड़े उपकारी और सबसे निकट गुरु ही है। गुरुवंदना से विनय और नम्रता का उत्कर्ष होता है और वंदन करनेवाले को परमशांति प्राप्त होती है।