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३) वंदना :
तीसरा आवश्यक वंदना है। साधना के क्षेत्रमें तीर्थंकर के पश्चात् दूसरा स्थान गुरु का है। तीर्थंकर देव है। देव के पश्चात गुरु को नमन किया जाता है । उनका स्तवन और अभिवादन किया जाता है। साधक मन, वचन और शरीर से सद्गुरु के प्रति समर्पित होता है । जो सद्गुणी है उन्हीं के चरणों में वह नत् होता है । जीवनमें विनय आवश्यक है। जैन आगमोंमें विनय को धर्म का मूल कहा है। भगवान महावीरने कहा है - “मानव, तेरा मस्तिष्क ऐरे - गैरे के चरणों में झुकने के लिए नहीं है।"- नम्र होना अलग बात है , पर हरएक व्यक्ति को परम आदरणीय समझकर नमस्कार करना अलग बात है।
सद्गुणोंको नमन करने का अर्थ है , सद्गुणोंको अपनाना । आचार्य भद्रुबाहु ने आवश्यक नियुक्ति में बहुत ही स्पष्ट शब्दोंमें लिखा है - कि गुणहिन व्यक्ति को नमस्कार नहीं करना चाहिए, क्योंकि गुणोंसे रहित व्यक्ति अवंदनीय होते हैं। ७९
___ अवंदनीय व्यक्ति को नमस्कार करने से कर्मोंकी निर्जरा नहीं होती है और न कीर्ति बढ़ती है। असंयम और दूराचार का अनुमोदन करने से नये कर्म बंधते हैं। अत: उनको वंदन करना व्यर्थ है। एक अवंदनीय व्यक्ति जो जानता है कि - मेरा जीवन दुर्गुणोंका आगार है - यदि वह सद्गुणी व्यक्तियोंसे नमस्कार ग्रहण करता है तो वह अपने जीवन को दूषित करता है। असंयमन की वृद्धिकर अपना ही पतन करता है।८०
जैन धर्म की दृष्टि से साधक में द्रव्यचारित्र और भावचारित्र दोनों आवश्यक है। जिसके द्रव्य और भाव दोनों ही चारित्र निर्मल हो वही सद्गुरु वंदनीय है। वंदना आवश्यक में ऐसे ही सद्गुरु को वंदन करने का विधान है। वंदन करने से अहंकार नष्ट होता है, विनय की उपलब्धि होती है। सद्गुरुओके प्रति अनन्य श्रद्धा व्यक्त होती है। तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन करने से शुद्ध धर्म की आराधना होती है। अत: साधक को सतत् जागृत रहकर वंदना करनी चाहिये । आचार्य मलयगिरिने लिखा है - द्रव्यवंदन मिथ्या दृष्टि भी करती है, भाववंदन सम्यक दृष्टि भी करता है।
धम्मपद में तथागत बुद्धने कहा - “पुण्य की इच्छा से जो व्यक्ति वर्षभर में यज्ञ और हवन करता है, उस यज्ञ और हवन का फल पुण्यात्माओं के अभिवादन के फल के चतुर्थ भाग भी नहीं है। अत: सरल मानस वाले महात्माओं को नमन करना चाहिए।" ८१ सदा वृद्धों की सेवा करनेवाले और अभिवादनशील पुरुष की चार वस्तुएँ वृद्धिंगत होती है - आयु, सौंदर्य, सुख और सौख्य ८२ इस प्रकार बौद्ध धर्म में वंदन को महत्त्व दिया है। वहाँ पर भी श्रमण जीवन की वरिष्ठता और कनिष्ठता के आधारपर वंदन की परंपरा रही है।