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________________ का उत्कीर्तन करने से साधक के अंतर में आध्यात्मिक बल का संचार होता है। उसका अहंकार दूर हो जाता है । संसारमें जो शुभतर परमाणु है उनसे तीर्थंकर का शरीर निर्मित होता है, इसलिए रुपकी दृष्टि से तीर्थंकर महान है। तीर्थंकर अवधिज्ञानन आदि तीन ज्ञान के साथ जन्म लेते हैं। दीक्षा अंगीकार करते ही उन्हें मनः पर्यवज्ञान प्राप्त हो जाता है और उसके पश्चात् उनमें केवलज्ञान का दिव्य आलोक प्रकाशित होता है, अतः ज्ञान की दृष्टि से तीर्थंकर महान है। दर्शन की दृष्टि से तीर्थंकर क्षायिक सम्यकत्व के धारक होते हैं। उनका चरित्र उत्तरोत्तर विकसित होता है। ज्ञान, दर्शन और चरित्र के साथ ही दानमें भी उनकी कोई क्षमता नहीं कर सकता । तपके क्षेत्रमें तीर्थंकर कीर्तिमान स्थापित करते हैं और भावना क्षेत्र में भी तीर्थंकरों की भावना उत्तरोत्तर निर्मल होती जाती हैं। तीर्थंकर बनना आसान नहीं हैं। तीर्थंकर बनने के लिए अनेक भवोंकी साधना अपेक्षित है। तीर्थंकर के गुणोंका उत्कीर्तन करने से हृदय पवित्र होता है । वासनाएँ शांत होती है, संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं। जब हम तीर्थंकरों की स्तुति करते हैं तो प्रत्येक तीर्थंकर का एक उज्ज्वल आदर्श हमारे सामने रहता है । ७२ तीर्थंकरों की स्तुति मानवमें अपने पौरुष को जागृत करने की प्रेरणा देती है। आत्मा ही परमात्मा है। कर्मबद्ध जीव है, तो कर्म मुक्त शीव है। इसलिए यदि मैं भी तीर्थंकर की तरह प्रयत्न करूँ तो मैं भी उनके समान बन सकता हूँ । लेकिन फिर भी जैन दर्शन केवल तीर्थंकर की प्रार्थना करने से साधक को मुक्ति मिले ऐसा स्वीकार नहीं करता है । व्यक्तिका पुरुषार्थ ही उसे मुक्ति की ओर आगे ले जाता है । तीर्थंकरों का पावन स्मरण ही पाप को नष्ट कर देता है । ७३ श्रीकृष्णने अर्जुन को स्पष्ट शब्दोंमें कहा था कि - तुम मेरी भक्ति करो, मैं तुम्हें सभी पापोंसे मुक्त कर दूँगा। भगवान महावीर ने भी कहा है - मैं भय से रक्षा करने वाला हूँ। ७४ तथागत बुद्ध ने कहा- जो मुझे देखता है, वह धर्म को देखता है । ७५ 'साधक को अंतर्मानस में जिस प्रकार की श्रद्धा / भावना बलवती होगी, उसी प्रकार का उसका जीवन बनेगा इसलिए गीताकारने कहा है - श्रद्धामयोऽयं पुरुषः यो यच्छ्रङ्घः स एव सः । ७६ श्री उत्तराध्ययन सूत्रमें - चतुर्विंशतिस्वत करने से किस सद्गुण की उपलब्धि होती है ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए भगवान महावीर ने कहा- चतुर्विंशति स्तव करने से दर्शन की विशुद्धि होती हैं। ७७ सम्यक्त्व विशुद्ध होता है । उपसर्ग और परिषहों को समभाव से सहन करने की शक्ति विकसित होती है और तीर्थंकर बनने की प्रेरणा मनमें जागृत होती है । ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर तक, वर्तमानकालीन चोबीस तीर्थंकरोंका स्तव अर्थात् गुणोत्कीर्तन है । ७८ 1 (१९२)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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