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________________ अष्टांगिक मार्ग में सभी के आगे सम्यक् शब्द का प्रयोग हुआ है जैसे - सम्यक् - संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक्-कर्मांत, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि | बौद्ध साहित्यमें जो सम्यक् शब्द का प्रयोग सम के अर्थ में है, क्योंकि पाली भाषामें जो सम्मा शब्द का सम और सम्यक् दोनों रूप बनते हैं । यहाँ जो सम्यक् शब्द अर्थ-द्वेष को न्यून करना है। रागद्वेष की मात्रा कम होगी तभी साधक समत्वयोग की ओर आगे बढ़ सकता है । अष्टांगिक मार्ग का अंतिम मार्गे सम्यक् समाधि है । संयुक्त निकाय में तथागत बुद्धने कहा- “जिन व्यक्तियोने धर्म को सही रुपसे, जान लिय है, जो किसी, मत, पक्ष या वाद में उलझे हुए नहीं हैं वे सम्बुद्ध हैं समदृष्टा हैं और विषम स्थितियों में भी उनका आचरण सम रहता है । "५७ संयुत्तनिकाय में अन्य स्थान पर बुद्धने स्पष्ट का है - आर्योंका मार्ग सम है । आर्य विषम स्थिति में भी सम का आचरण करते हैं । ५८ मज्झिमनिकाय में राग-द्वेष, मोह के उपशमन को ही परम आर्य उपशमन माना है 19 सुत्तनिपात में कहा गया है - जिस प्रकार मैं हूँ वैसे ही संसार के सभी प्राणी हैं । अतः सभी को अपने समान समझकर आचरण करना चाहिए। ६० बौद्ध दर्शन में माध्यस्थवृत्ति का मूल आधार समत्व ही है । इस लिए बौद्ध धर्म में समभाव को साधना का अंग माना है । बौद्ध ग्रंथोंमें सामायिक का निरुपण नहीं है, पर समायिक का मूल समभाव है, इसका उल्लेख जरुर किया है। वैदिक परंपरा के ग्रंथोंमें समत्वयोग की चर्चा हुई है । श्रीमद् भगवत् गीता वैदिक परंपराका प्रतिनिधी ग्रंथ है। उसमें समत्व को ही योग कहा है। ६१ ज्ञान, कर्म, भक्ति, ध्यान आदि का उद्देश्य समत्व है । समत्व के बिना ज्ञान, अज्ञान है। जिसमें समत्वभाव है वही यथार्थ ज्ञानी है। ६२ बिना समता के कर्म अकर्म नहीं बनता, समत्व के अभावमें कर्म का बन्धकत्व बना रहेगा । ६३ समत्व के बिना भक्त भी सच्चा भक्त नहीं है । समत्व से अज्ञान ज्ञान रुपमें परिवर्तित होता है और वह ज्ञान योग के रुपमें जाना जाता है। गीताकार की दृष्टिसे स्वयं परमात्मा ब्रह्म सम है।६४ जो व्यक्ति समत्वमें अवस्थित रहता है, वह परामात्मभाव में ही अवस्थित है । ६५ नवम अध्याय में श्रीकृष्णने वीर अर्जून को कहा - "हे अर्जुन ! मैं सभी प्राणियोंमें सम के रुपमें स्थित हूँ । ६६ गीताकार की दृष्टि से समत्वका क्या अर्थ है ? इसपर चिंतन करते हुए आचार्य शंकर ने लिखा है - समत्व का अर्थ तुल्यता है, आत्मवत्दृष्टि है । सभी को सुखप्रिय है दुःख अप्रिय है । वह किसीके प्रति प्रतिकूल आचरण नहीं करता हैं । वही समदर्शी है। सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि रखना समत्व है । ६७ समत्वयोगी (१९०)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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