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को नष्ट कर केवल ज्ञान को प्राप्त कर लेता है।४१ ___मन, वचन और काय की दुष्टवृत्तियोंको रोककर अपने निश्चित लक्ष्य की ओर ध्यान को केंद्रित कर देना सामायिक है । सामायिक करनेवाला साधक मन,वचन और काय को वशमें कर लेता है। विषय, कषाय और राग-द्वेष से अलग रहकर सदा ही समभावमें स्थित रहता है । आचार्य भद्रबाहु ने कहा है - जो साधक त्रस और स्थावर रुप सभी जीवोंपर समभाव रखता है उसकी सामाईक शुद्ध होती है। ४२ उनका ही दूसरा कथन है कि जिसकी आत्मा संयम में, तपमें, नियममें संलग्न रहती है, उसीकी सामायिक शुद्ध होती है।४३
आचार्य जिनभद्र गणि क्षमा श्रमणने सामायिक को चौदहपूर्व का अर्थपिंड कहा है।४४
___ उपाध्याय यशोविजयजीने सामायिक को संपूर्ण द्वादशांगी रुप जिनवाणी का सार रुप बताया है।४५
भगवती सूत्रमें वर्णन है कि- कालास्यवेसी अनगार के समक्ष तुंगिया नगरी के श्रमणो पासकोने जिज्ञासा प्रस्तुत की थी कि - सामायिक क्या है ? और सामायिक का अर्थ क्या है ? कालास्यवेसी अनगारने स्पष्टरुपसे उत्तर दिया - "आत्मा ही सामायिक है और आत्मा ही सामायिक का अर्थ है।"४६ तात्पर्य यह है कि - जब आत्मा पापमय व्यापरोंका परित्यागकर समभावमें स्थित रहता है, तब समायिक होती है। सामायिक में साधक बाह्य दृष्टि का परित्याग कर अंतरदृष्टि को अपनाता है, विषमभाव का परित्याग कर समभावमें स्थित रहता है, परपदार्थों से ममत्व हटाकर निजभावमें स्थित होता है।
___ आचार्य जिनदास गणि महत्तरने सामायिक आवश्यकको आद्यमंगल माना है।४७ जितनेभी विश्वमें द्रव्यमंगल है, वे सभी द्रव्यमंगल, अमंगल रुपमें परिवर्तित हो सकते हैं और सामायिक ऐसा भाव मंगल है जो कभी भी अमंगल नहीं हो सकता । समभाव की साधना मंगलोंका मूलकेंद्र है। अनंतकालसे इस विराट विश्वमें परिभ्रमण करनेवाला आत्मा यदि एक बार भी भाव सामायिक ग्रहण करले तो वह सात, आठ, भवसे अधिक संसारमें परिभ्रमण नहीं करता। सामायिक ऐसा पारसमणि है कि - जिसके संस्पर्श से अनंत काल की मिथ्यात्व आदि की कालिमासे आत्मा मुक्त हो जाता हैं।
सामायिक के पात्र भेद से दो भेद होते हैं। १) गृहस्थ की सामायिक २) श्रमण की सामायिक ४८ गृहस्थ की सामायिक परंपरानुसार एक मुहूर्त याने ४८ मिनिट की होती है, अधिक
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