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________________ यह है कि - साधक प्रतिदिन षड़ावश्यक में प्रगति करें और मानव जीवन को सार्थक करें। कर्म-बंधन से मुक्ति पाने के लिए और स्वस्वरुप की यथार्थ अनुभूति के लिए षड़ावश्यक महान उपकारी सिद्ध हो सकते हैं। षड़ावश्यक में सामायिक तक पहुँचने के लिए साधक को पूरी जागृति और परम पुरुषार्थ करना अनिवार्य बन जाता है जैन दर्शनमें षड़ावश्यक निम्न लिखित हैं। १) सामायिक २) चतुर्विंशतिस्तव ३) गुरुवंदन ४) प्रतिक्रमण ५) कार्योत्सर्ग और ६) प्रत्याख्यान सामायिक यह सबसे पहला आवश्य है। ३० प्रत्येक जैन के लिए प्रतिदिन सामायिक करना नितांत जरूरी है। सामायिक की प्रतिष्ठा के बारेमें जितना भी लिखा जाये उतना कम है। सामायिक से समता भावमें वृद्धि होती है। सामायिक क्रिया दरम्यान साधक पाप कर्मोंसे मुक्त होकर आत्मचिंतन करके आत्म समाधि की ओर प्रगति कर सकता है। ३१ सामायिक को आत्मसाक्षात्कार की अनुभूति का साध्य और साधन दोनों कहा गया है। जिस तरह शरीर के पोषण के लिए खुराक की जरुरत होती है ठिक उसी तरह आत्मा के पोषण के लिए खुराक की जरुरत होती हैं। यदि शरीर को खुराक न मिलें तो शरीर निर्बल और तेजहीन हो जायेगा, उसी तरह आत्मा भी खुराक के अभाव में तेजहीन हो जायेगी। आत्मा खुराक के अभाव में उसका आत्मबल कमजोर हो जाएगा। जिस तरह शरीर की खुराक अन्न है वैसेही आत्मा की खुराक - सामायिक है। सामायिक समभाव और सत्यकी उपासना है। सामायिक जीवन के अंधेरे को दूर कर जीवन को उजाला प्रदान करती है। सामायिक आकुलता रहित जीवन जीनेका मूलमंत्र है । संसारमें जितने भी दु:ख-दर्द,क्लेश रगड़े-झगड़े और विषमतायें है वे सब समभाव धारण करने सेही दूर होते है । सामायिक समभावकी ही साधना है। जैसे जैसे जीवन में समभाव बढ़ता है वैसे-वैसे जीवन के दु:ख, सुखोंमें बदलने शुरु हो जाते हैं । इस तरह सामायिक से जीवनकी विषमताएँ समतामें बदल जाती है। इस तरह सामायिक जीवन के उत्थान का अमोघ उपाय है। सर्वज्ञ प्रभुद्वारा प्रतिपादिक सामायिक मोक्ष का अंग-प्रधान कारण है। जैस चंदन तो स्वयं को काटनेवाली कुल्हाडी को भी अपनी शीतलता और सुरभि ही देता है, वैसे ही सामायिक व्रती-संत-महात्माओं को भी कोई द्वेषवश कितना ही परिताप, कष्ट, निन्दादिसे दु:खी करें तो भी वे उसे अपने सुहृद्-भावसे सुखी ही बनाते है। ३२ ___ उपाध्याय श्री अमरमुनीजी सामायिक - सूत्र नामक ग्रंथमें लिखते हैं - सामायिक की साधना हृदय को विशाल बनाने के लिए है। अतः एव जब तक साधक का हृदय विश्व (१८४)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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