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सदेहावस्था के परे पहुँचे हुए सिद्ध जीव केवल शुद्धज्ञान चेतना का अनुभव करते हैं। एक दूसरी मान्यता के मुताबिक संसारी जीव ही ज्ञान चेतना का अपने जीवन में प्रयोग कर सकते हैं और प्रारंभिक कर्मफल की मर्यादाओंको दूर करके उत्तम पद की प्राप्ति का पुरुषार्थ कर सकते हैं।
__ आत्मा के सारे पर्याय एक जैसे नहीं होते। पर्यायोंकी भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को भाव कहते हैं और शास्त्रकारोने कर्मबद्ध जीव की पाँच भावोंमें विशेषता दिखाई है। तत्वार्थ सूत्रमें भी औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदायिक और पारिणामिक - जीव के ये पाँच भाव बताये गये हैं। २७ ___एक दूसरी मान्यता के अनुसार जीव के तीन भाव हैं। १) शुभ २) अशुभ ३) शुद्ध । इनमें से किसी भी भाव के रुपमें वह परिणमन करता है। अगर आत्मा अपरिणामी होता तो यह संसार बिल्कुल नहीं होता। किसी भी पदार्थ का अस्तित्व द्रव्य, गुण, पर्यायमय है। आत्मा जब शुद्धभाव रुपमें परिणत होता है तब वह निर्वाण सुख प्राप्त कर लेता है। जब वह शुभभाव रूपमें परिणमन करता है तब वह स्वर्गसुख प्राप्त कर सकता है और जब अशुभभावमें परिणमन करता है तब हीन मनुष्य, नारकी या पशु बनकर- चिरकाल तक इस संसारमें बड़े कष्टोंसे भ्रमण करता है। २८
तीनों भावोंको दर्शाकर ज्ञानियोने स्पष्ट संकेत दिया है कि जिस जीव के भाव शुभ होते हैं, जो दयालु होता है वह जीव पुण्यशाली माना जाता है। अरिहंत, सिद्ध और साधु की भक्ति, धार्मिक वृत्ति, नवकार मंत्र का जप, ध्यान और आदर करना यह शुभ भाव हैं। अनुकंपा और प्रेम से मैत्री और क्षमासे यह संसारके सभी प्राणियों के साथ शुभ व्यवहार रखनेसे शुभोपयोग होता है। और यही सच्चा उपयोग है। इस शुभोपयोग से क्रोध, मान, माया और लोभ आदि मंद करने में सहायता मिलती है और मनुष्यत्व की प्राप्ति होती है। उत्तम मानवीय गुणोंका विकास होता है। २९ .
षड़ावश्यक और नवकार मंत्र
षड़ावश्यक और नवकार मंत्र :
आगम ग्रंथ आवश्यक सूत्रमें श्रावकाचार का संपूर्ण आलेखन किया गया है। भगवान महावीर ने चतुर्विध संघकी स्थापना करके साधु-साध्वि के लिए समाचारी और श्रावकश्राविका के लिए श्रावकाचार का विगतपूर्ण निरुपण किया है। इस निरुपण का प्रधान उद्देश्य
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