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________________ अनुभव हुआ है। अनुभुति से अलग मेरा आत्मा नहीं है। २० नवकार मंत्र सबसे पहले हमें अशुभपयोग से बचाता है। शुभभाव या उपयोग में प्रवृत्त करके शुद्ध में हमें स्थित करता है । जीवका यह स्वाभाविक क्रमिक विकास है। नवकार मंत्र और शुभोपयोग से हमारी निवृत्ति होती है। शुभमें हम प्रवृत्त होते हैं और शुद्ध में लीन होकर परमतत्व की प्राप्ति कर सकते हैं । और परमात्मा पद की गौरवान्वित स्थिति प्राप्त कर सकते हैं । उपयोग के भेद जीव का जो बोध व्यापार है उसे उपयोग कहते हैं। जीवमें चेतना शक्ति होने से उसे बोध होता है। आत्मा में अनंतगुण पर्याय है, परंतु उनमें उपयोग मुख्य है । वह स्वपर प्रकाशक है। इसलिए आत्मा का लक्षण बताया गया है। २१ ज्ञान के आठ और दर्शन के चार ये सब मिलाके उपयोग के बारह प्रकार होते हैं । अ) ज्ञान के पाँच प्रकार : १) मतिज्ञान, २) श्रुतज्ञान ३) अवधिज्ञान ४ ) मन: पर्याय ज्ञान और ५) केवल ज्ञान ब) अज्ञान के तीन प्रकार : १) मति अज्ञान, २) श्रुत अज्ञान और ३) विभंग ज्ञान क) दर्शन के चार प्रकार: १) चक्षुदर्शन २) अचक्षुदर्शन ३) अवधिदर्शन और ४) केवलदर्शन २२ 1 उपयोग के बारह प्रकारोंमेंसे पाँच प्रकार का सम्यक् ज्ञान और तीन प्रकार का अज्ञान साकार उपयोग है । चार प्रकारका दर्शन अनाकार उपयोग है। उपयोग जीव का अबाधित लक्षण है । २३ जिसे जीव, आत्मा अथवा चैतन्य कहते हैं । वह अनादि, सिद्ध तथा स्वतंत्र द्रव्य है । जीवके अरुपी होने से इंद्रियोंद्वारा उसका ज्ञान नहीं होता । संसार जड़ और चेतन पदार्थोंका मिश्रण है। उसमें से जड़ और चेतन का विवेकपूर्वक निश्चय उपयोग सेही होता है । जिसमें उपयोग नहीं होता वह जड़ है । २४ उपयोग के भेद की विस्तृत चर्चा यहाँ आवश्यक नहीं है, फिर भी हम कह सकते है कि तीर्थंकर जन्मसेंही तीन ज्ञानों को प्राप्त करके स्व- पर कल्याण के लिए ज्ञान का उपयोग करते हैं । स्वयम दीक्षा अंगीकार करने के बाद मनः पर्यवज्ञान की प्राप्ति उन्हें होती है और तप आदि साधना से केवल ज्ञान की प्राप्ति उनका अंतिम लक्ष्य होता है । केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद ही वे तीर्थकी स्थापना करते हैं, देशना देते हैं और निर्वाण पद प्राप्त करते हैं । I (१८१)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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