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________________ सिद्ध, साधक और साधन तीनों का नवपदमें संगम : नवकार के नवपद के बारे में चिंतन करते हुए आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी लिखते हैं किइस नवपदमें अरिहंत और सिद्ध ये दो निर्वाणयोगी हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीन निर्वाण योग के साधक हैं। ये तीनों निर्वाणयोग की साधना करते हैं इसलिए इन तीनों को साधु या साधक कहते हैं। ज्ञान, दर्शन, चरित्र और तप ये चार निर्वाण योग के साधन है । मोक्षप्राप्त के साधन हैं । १६ नवकार मंत्र के अंतिम चारों पद हमें साधना की ओर ले जाकर साध्य और लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रेरणा देता है । नवकार मंत्र में इतनी महान शक्ति है - परम मांगलिक शक्ति है । इसका हमें यथार्थ परिचय करवाता है और हमारी आत्माके अनंत गुणों को जागृत करनेका उत्तम कार्य नवकार मंत्र करता है। नवकार मंत्र में साध्य और सिद्ध एक हो जाते हैं । सर्व दुःखोंसे मुक्ति अर्थात् आत्माकी पूर्ण शुद्ध अवस्था - निजस्वरुप की प्राप्ति है । भक्त और भगवान दोनों एक हो जाते हैं। भक्त भगवान के रुपमें प्रतिष्ठित हो जाता है । इसलिए हमने सिद्ध, साधक और साधन की जो भेद रेखा खींची है वह केवल वर्तमान दृष्टिसे है। वास्तवमें इन तीनों के रुप स्वरुपमें कोई मौलिक अंतर नहीं है। - महान अध्यात्म योगी उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज वासुपूज्य भगवान की स्तुतिमें मस्त होकर गाते हैं - प्रभु ! आप ध्येय है, मैं ध्याता हूँ और आपका चिंतन ध्यान है । इन तीनों का भेद मिटकर मैं आपके साथ एकाकार हो जाऊँ, तन्मय हो जाऊँ, एकरस हो जाऊँ ! जैसे दूधमें पानी मिल जाता है तो वह दूध जैसा ही बन जाता है। इसी तरह मैं भी आपमें लीन होकर एकरस बन जाऊँ, यही मेरी तमन्ना है । १७ उपयोग जीवका अबाधित लक्षण है । उपयोग जीव के अलावा किसी भी द्रव्य अथवा तत्वमें नहीं रहता । जीव को भिन्न समझने के लिए उपयोग को जीवका लक्षण बताया गया है। आगम साहित्यमें जगह-जगह जीवका लक्षण उपयोग ही बताया गया है । जिस जीव को आत्मा अथवा चैतन्य कहते है वह अनादि सिद्ध तथा स्वतंत्र द्रव्य है । उपयोग को जीव का लक्षण बताया गया है । १८ जिसमें उपयोग नहीं होता वह जड़ है। उपयोग के मुख्य दो भेद हैं । १) दर्शनोपयोग और २) ज्ञानोपयोग । शुभेोपयोग से शुद्धोपयोग की प्राप्ति करना जीवका कर्तव्य बन जाता है। जैन दर्शन जीवकी शुभ प्रवृत्तिमें भव्य पुरुषार्थ करने की प्रेरणा देता है। शुभोपयोग से ही विकास करके शुद्धोपयोग तक हम पहुँच सकते हैं । जीव नववें ग्रैवेयक तक चला जावें ऐसा विशिष्ट शुभराग भी इस जीवने अनंत बार किया किंतु शुद्ध चैतन्यस्वरुप आत्माका भान किये बिना लेशमात्र भी सुख नहीं मिला । १९९ मुझे शुद्ध आत्मा की अनुभूति हुई है, वही मैं हूँ । शुद्धस्वरुप का मुझे आनंदमय (१८० )
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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