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पुरुषोके मध्य विनय पूर्वक रहना चाहिए । तथा ब्रह्मचर्य का भलिभाँति दृढ़ता पूर्वक पालन करना चाहिये । इसमें समस्त विश्वके प्रति मैत्री, नारी जाति के प्रति मातृत्व भावना रखना उचित हैं। इससे विचारोंमें पवित्रता आती है। उससे साधक को यह मानना चाहिये कि यह शरीर आत्मा का मंदिर है। इसलिए उसे पवित्र रखना है। ब्रह्मचर्य आदि उत्तम गुण आत्मा की पवित्रता के हेतु हैं। ___ साधक को मादक और उत्तेजक भोजन नहीं करना चाहिए। आसन, प्राणायाम आदि करना चाहिये, उससे बुरे विचारों का दमन होता है।
पदार्थों के प्रति मन में जो राग या प्रेम है, उसको वीतराग प्रभु की ओर लगाना चाहिये। ऐसा करने से वह भक्ति का रुप ले लेता है।
आंतरिक विघ्नों में क्रोध भी एक भयंकर, विघ्न है। वह व्यक्ति का मानसिक संतुलन मिटा देता है। जिससे क्रोधोन्मत्त पुरुष बुरे से बुरा कार्य करते हुए भी नहीं सकुचाता। क्रोध के साथ द्रोह, ईर्षा, कटुवचन, असत्य आदि और भी अनेक दुर्गुण आ जाते हैं। उनमे लोभ, मोह, मद, इर्षा आदि मुख्य हैं। लोभ तृष्णा के साथ जुड़ा हुआ है। तृष्णा का कभी अंत नहीं आता । मोह का कारण अविद्या या अज्ञान है । मद का अर्थ गर्व मिथ्या अभिमान है। प्रवंचना, छल या कपट को माया कहा जाता है।
दशवकालिक सूत्र में कहा गया है -
“क्रोध, प्रीति का नाश करता है, मान या मिथ्या अभिमान विनय को मिटा देता है। माया मित्रता का नाश करती है। तथा लोभ सब कुछ नष्ट कर देता है।"१०
उत्तराध्ययन सूत्र में मोह आदि के नष्ट होने पर जीवन में क्या - क्या फलित होता है, इस पर प्रकाश डालते हुए लिखा है - जिसके मोह नहीं होता, उसके दुःख का नाश हो जाता है। जिसके तृष्णा नहीं होती, उसके मोह का नाश हो जाता है। जिसके लोभ नहीं होता, उसकी तृष्णा का नाश हो जाता है। जिसके पास कुछ भी नहीं है, जो निष्परिग्रह है, उसके लोभ का नाश हो जाता है। ११
नवकार के आराधक के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि वह उपर वर्णित बाह्य और आंतरिक विघ्नों से अपनी रक्षा करें। यह रक्षा तभी हो पाती है, जब इन दुर्गुणों को अपने भीतर न आने दे। ये विघ्न अपने स्वभाव से विचलित करते हैं, जो अत्यंत हानिप्रद हैं। ____णमोकार मंत्र जीवनके इस साध्य को पूर्ण करने में सर्वाधिक सहायक होता है। यह महामंत्र समग्र जैन शासन में समान रूप से प्रतिष्ठा प्राप्त है। इसलिए नित्य प्रति णमोक्कार मंत्र के जप पर धार्मिक क्षेत्र में बहुत जोर दिया है। जिसने आत्मा को जाना उसने सबकुछ जान लिया है। १३
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