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मानव के मन को तरल जल की उपमा दी गई है। जल जिसके संसर्ग में आता है, वैसा ही बन जाता हैं। उसी प्रकार मन बुरे संसर्ग से बुरा और उत्तम संसर्ग से उत्तम बनता है, इसलिये यह आवश्यक है कि मन को सदैव कुत्सित संसर्ग से बचाते रहना चाहिये। ____ अपराधों, बुराईयों या असत् क्रियाओं की श्रृंखला छोटे रूप से शुरू होकर आगे बढ़ती जाती है। कहा गया हैं, जो सांसारिक विषयों का ध्यान करता है, उसके मन में उनके प्रति आसक्ति उत्पन्न हो जाती है। आसक्ति उन्हें प्राप्त करने की कामना में परिणत हो जाती हैं। जब कामना पूरी नहीं होती, तब मनुष्य में क्रोध व्याप्त हो जाता हैं। क्रोध से उन्मत्त बना हुआ मनुष्य मोहमूढ़ हो जाता हैं। मोह से स्मृति नष्ट हो जाती हैं। स्मृति का नाश हो जाने पर बुद्धि का नाश हो जाता हैं। बुद्धि का नाश हो जानेपर मनुष्य सभी उत्तम कर्मोंसे भ्रष्ट हो जाता है। उसका जीवन नष्ट हो जाता हैं।
काम, क्रोध आदि दुर्गुण तथा विविध कर्मों के परिणाम प्रत्येक के भीतर होते हैं। जैसे वायु, अग्नि को प्रज्वलित कर देती है, उसी प्रकार बुरा संसर्ग काम, क्रोध आदि को उत्तेजित कर देता है। बुरी बातें सुनना, बुरी वस्तुयें देखना, अपशब्द बोलना, दूषित संकल्पविकल्प करना आदि ऐसे कार्य हैं, जो दोषों और विघ्नों की वृद्धि करते है। तीर्थंकर भगवंतो को भी अपने आत्मगत शत्रुओं के साथ घोर युद्ध करना पड़ा तो औरों की तो बात ही क्या ? तभी तो कहा गया है -
अपनी आत्मा के साथ ही युद्ध करों। बाहर के युद्ध से क्या होगा ? जो अपने द्वारा अपनी आत्मा के दोषों को नष्ट कर देता हैं, वही सच्चा सुख प्राप्त करता है। इसलिए साधक सदैव यह प्रयत्न करता रहे कि उसके दोष, विकार वृद्धि न पायें। वह उन्हें जीतने का, नियंत्रित करने का, मिटाने का प्रयास करें । कुत्सित जनों का संसर्ग इसमें बाधक होता हैं। उत्तम पुरूषों को संसर्ग आत्मा के लिये बहुत दुष्कर होता हैं। सदाचारी पुरुषों की संगति में रहने से, दुर्गुण नष्ट होते है। सत् संगति मनुष्य के दोषों को, दुर्गुणों को दूर करने में बहुत हितकर हैं। नवकार के आराधक को कदापि कुसंगति नहीं करना चाहिए। सत् संगति के बारें मे कहा गया है - ___“सत् संगति बुद्धि की जड़ता को मिटाती है। वाणी में सत्य का सींचन करती है। सम्मान एवं उन्नति बढ़ाती है। पाप का अपाकरण करती हैं, उसे दूर करती है। चित्त में प्रसन्नता उत्पन्न करती है। कीर्ति का प्रसार करती हैं। सत् संगति क्या नहीं करती ?"९ आंतरिक विघ्न :
आंतरिक विघ्नों में काम सबसे बड़ा विघ्न है । काफी व्यक्तियों में जुगार, शिकार, मदिरापान, परनिंदा आदि अनेक दुर्गुण उत्पन्न हो जाते हैं। सदैव सदाचारी एवं उत्तम
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