________________
नवकार के आराधक अधिकारी
भव्य जीव सांसरिक भोगों को नश्वर और परिणामविरस मानते है। वे आत्मकल्याण को जीवन का परम लक्ष्य समझते हैं। वे अनुभव करते है कि आत्मा में अनंत शक्ति है। आत्मा ही अपने उद्यम द्वारा परमात्मा स्वरूप बन सकती है। उनके मन में प्राणीमात्र के प्रति समत्वभाव होता है। वे मिथ्या विश्वास से सदा दूर होते हैं। उनकी सत्य में अविचल श्रद्धा होती हैं। उनका जीवन अहिंसा और करूणा से ओतप्रोत होता है, ऐसे पुरुष नवकार के अधिकारी है।
नामस्मरण कम से कम १०८ बार प्रतिदिन करना चाहिए। नवकार मंत्र अहंकार आदि आत्मा के रोगों को नष्ट करनेवाली एक अमोघ औषधी हैं। औषधी सेवन करते समय पथ्य
और अपथ्य दोनों का ध्यान रखना आवश्यक है। जो रूग्ण व्यक्ति पथ्यसेवन का ध्यान नहीं रखता, उसके लिए औषधी गुणकारी नहीं होती। वह कभी - कभी विपरीत प्रभाव भी करती हैं। जो रोगी पथ्य का विवेक रखता है, उसे औषधी सेवन से बहुत लाभ होता है, वह निरोगी हो जाता है, उसी प्रकार नवकार के आराधक को पथ्य-अपथ्य, हित अहित का ध्यान रखना आवश्यक है। साधना में अनेक विघ्न आते हैं। उस समय आत्मबल का सहारा लेकर साधना में दृढ बने रहना आवश्यक है। बाह्य और आंतरिक रूप में विघ्न दो प्रकार के होते है।
बाह्य विघ्न :
कुत्सित जनोंका संसर्ग या संगति बाह्य विघ्न हैं। बुरे लोगों की संगति जिस प्रकार हानिप्रद है, उसी प्रकार दूषित साहित्य का पढ़ना भी अत्यंत हानिप्रद है। बुरे दृश्य देखना अश्लील संगीत सुनना, दुर्वचन बोलना, तथा मन में बुरे विचार लाना भी कुसंसर्ग के समान ही है। साधक वैसा कभी न करें।
कुत्सित कार्य दूषित तथा कलुषित विचार से बचने के लिए साधक अपने में वैराग्य भाव को विकसित करें। वीतराग देव की सात्त्विक शांतरसमय भावमुद्रा का चिंतन करें। उनकी वाणी का स्मरण करें। धार्मिक कथा वार्ता करें, ऐसा संगीत सुने और गायें, जो उत्तम एवं सात्त्विक भाव उत्पन्न करता हो।
आचार्य हेमचंद्र ने योगशास्त्र में लिखा है -
कुतुहल वृत्ति से भी साधक असत् आलंबनों का परिचय न करें। मुझ पर इनका कोई प्रभाव होता है या नहीं ऐसी परीक्षा करने के लिए भी आत्म विपरीत पदार्थों कार्यों एवं विचारों का सेवन न करें, क्यों कि उनका सेवन करने से स्वयं का नाश हो जाता है।६
(१७६)