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________________ नाग-नागिन का उद्धार : जब सुना नवकार धरणेंद्र - पद्मावती लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व की घटना है। वाराणसी (बनारस) नगरी पर राजा अश्वसेन राज्य करते थे। उनकी रानी वामादेवी। राजकुमार का नाम था - पार्श्वकुमार । एक बार युवक पार्श्वकुमार, घोड़े पर चढ़कर घूमते हुए नगर के बाहर चले गए। वहाँ एक मेला - सा लगा था। राजकुमार नजदीक आए, देखा कि एक संन्यासी पंचाग्नि तप कर रहा है। चारों दिशाओं में चारों तरफ अग्निजल रही है, ऊपर आकाश में प्रचण्ड सूर्य तप रहा हैं, बीच में वह तापस बैठा है। सैंकड़ो लोग उसके चारों तरफ खड़े हैं। राजकुमार को अपने दर्शन के लिए आया समझकर कमठ संन्यासी का अहंकार आसमान छूने लगा। प्रजाजन भी तपस्वी की महिमा गाने लगे। तभी राजकुमार ने अपने रंगेक्षक सेवकों को इशारा करके कहा, देखो, इस धुनी में वह जो बड़ा लक्कड़ जला जा रहा है उसके भीतर एक जीवित नाग की जोड़ा भी जल रहा है। तुम तुरन्त उसे बाहर निकालो, बचाओ। ___ राज कर्मचारी धुनी से लक्कड़ खींचने आगे बढ़े। तो संन्यासी ने उन्हें टोक दिया - ठहरो ! यह मेरा पंचाग्नि तप है, इसमें बाधा मत डालो, वरना तुम्हें भी भस्म कर दूंगा। राजकुमार ने गंभीरतापूर्वक कहा - संन्यासी जी ! यह आपका कैसा तप है ? तपस्या का अर्थ किसी को जलाना तो नहीं, तपस्या में तो दया और करुणा होनी चाहिए। कमठ संन्यासी क्रोध में लाल पीला होकर राजकुमार पार्श्व को घुरने लगा। किन्तु निर्भिक और दयालु राजकुमार ने अपने सेवकों से कहा - यह विवाद का समय नहीं है, जलते नाग को पहले बचाओ। उन्हें अग्नि की लपटों से बाहर निकालो। सेवकों ने लक्कड़ को बाहर खींचा, धीरे से चीरा तो भीतर एक लम्बा काला नाग - नागिन का जोड़ा निकला। आग की लपटोंमें उनका आधा शरीर झुलस गया था। तड़प कर मिट्टी में लोटने लगे। तड़पते उधजले नाग जोड़े को देखकर संन्यासी की आँखें फटी सी रह गईं। सभी लोग राजकुमार के अद्भुत दिव्य ज्ञान, साहस और दयालुता की प्रशंसा करने लगे । धन्य है करुणामूर्ति राजकुमार ! आप न आते तो यह नाग देवता आज इस धुनी में जलकर भस्म हो गये होते ... राजकुमार घोड़े से नीचे उतरकर नाग के जोड़े के पास आये। धीर गंभीर स्वर में बोले - हे नागराज ! अब यह तुम्हारा अंतिम समय है। शान्त मन से इस पीड़ा को सहन करो। मैं (१४९)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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