SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साहु एक वचन है और साहू बहुवचन है। यहाँ साहू शब्द का उपयोग किया गया है। ऐसा लगता है कि - इस तरह इसमें उपाध्याय और आचार्य को सम्मिलित कर लिया है। 'चत्तारि मंगल' में चार की संख्या क्यों ली गई ? ऐसे देखे तो चार बहुत सी चीजें हैं, जैसे दिशाओं चार हैं। इससे बढ़कर दिशा क्या हो सकती है कि - "अरिहंतामंगलं - सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवली पन्नतो धम्मो मंगलं ।” अरिहंत से हमारा नवकार शुरु हुआ है। अरिहंतमें 'अ' से 'ह' तक सारी वर्णमाला आ गई हैं। चार की जो संख्या है वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। जैसे अनंत चातुष्ट्य हैं, चार गतियाँ हैं, चार धाम है, चार वेद हैं, चार आश्रम है, चार कषाय है । चार की संख्या बहुत व्यापक हैं। इसलिए चत्तारि मंगलं में चार की संख्या रखी गई हैं। लगता तो यह है कि - नवकार मंत्र में अरिहंत के १२ गुण, सिद्ध के ८ गुण आचार्य के ३६ गुण, उपाध्याय के २५ गुण और साधु के २७ गुण हैं। जो कुल मिलाकर १०८ गुण होते हैं और ये १०८ की संख्या भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। जब हम जाप करते हैं तो चार अंगूलियोंसे करते हैं, जिनमें से हर एक में तीन - तीन पौर बने हुए हैं। इस प्रकार १२ पौर हो जाते हैं। १२ को ९ बार जाप करें तो १०८ हो जाते हैं, इसमें चारका योग हैं। यदि १०८ में चार का भाग दें तो २७ गुण आ जाते हैं जो साधुके हैं। ___ यह मंगलोत्तम पाठ है, यह नवकार मंत्र के उपसंहार के रुप में दिया गया है। यह बहुत महत्त्वपूर्ण है, यह नवकार मंत्र अरिहंत से शुरु होता है, परंतु अरिहंत से सिद्ध बड़े है। अरिहंत -सिद्ध की पूर्व स्थिति है। पहले नमो सिद्धाणं आना चाहिये था, बाद में णमो अरिहंताणं आना चाहिये था, परंतु अरिहंत उपदेश देते हैं, दिशा निर्देश करते हैं इसलिए अरिहंत का प्रथम नंबर आता है, सिद्धका दूसरा नंबर आता है। एक तो अरिहंत सिद्धवाला तट है और दूसरा तट साधू का है, जिसमें आचार्य और उपाध्याय भी सम्मिलित हैं। चत्तारि मंगलं में जो मंगल शब्द आया है, इसमें एक तरह से विश्वमैत्री शामिल है, हम किसी के साथ वैर नहीं रखना चाहते, किसी के साथ शत्रुता रखना नहीं चाहते, हम सबके साथ शुभ कामना रखना चाहते हैं। और शुभकामना हम केवल इसलिए रखना चाहते है कि - वह हमारा आदर्श हैं। यह अरिहंत का आदर्श है, सिद्ध का आदर्श है, साधु का आदर्श है और इसी प्रकार धर्म का भी आदर्श है। हमारे धर्म की परिभाषा हो जाती है। इन चारोंमें से जब हम अरिहंता मंगलं, सिद्धमंगलं, साहू मंगलं कहते हैं, तब अरिहंत, सिद्ध और साधु - इन तीनों का स्मरण करते हुए इन तीनों की व्याख्या करें, तो यह धर्म का स्वरुप बन जाता हैं। धर्म का स्वरुप कोई अलग चीज नहीं है। मनुष्य मात्र मुक्त होना चाहता है, उसका आयोजन इसमें है। केवलीद्वारा प्रणीत धर्म ऐसा होगा कि - हम आत्माको पाने के लिए प्रयत्न करें, इसलिए इसे धर्मनाम दिया गया हैं। आगे इस प्रकार कहा गया है कि - (१४६)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy