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वचन और काया से एकाग्रता प्राप्त करनेका पुरुषार्थ कर सकता है। प्रत्येक पदकी शक्ति से
और प्रत्येक वर्णमें नीहित विद्याओंसे उसकी ध्यानसाधना उत्तरोत्तर पवित्र और विशुद्ध बनती है। साधक यदि संकल्प करे तो आर्त और रौर्द्रध्यानसे मुक्ति पाकर धर्म और शुक्ल ध्यान में रत होकर सिद्धत्व की प्राप्ति कर सकता है।१८६ नवकारमंत्रके ध्यान का योग मानवको पवित्र जीवनकी अनुपम सामग्री प्रदान कर सकता है। १८७ पंचपरमेष्ठी नवकार स्तव में ध्यान -
पंचपरमेष्ठी नवकार स्तव खरतर गच्छीय आचार्य श्री जिनप्रभसूरि की रचना है। इसमें पाँच अनुष्ठप श्लोक है। उनमें पंचपरमेष्ठियों का संस्तवन किया गया है। कहा गया है - विवेक पुरुषों को श्रीअरिहंतदेव स्वर्ग की लक्ष्मी, सिद्ध भगवंत, सिद्ध पद, आचार्य पाँच प्रकार का आचार, उपाध्याय श्रेष्ठ ज्ञान तथा साधु सिद्धि प्राप्ति में सहायता प्रदान करे । इन पाँच परमेष्ठियों को किया गया नमस्कार सब मंगलोंमें प्रथम मंगल है। ___ॐ हीं अहँ रुप ध्येय का योगी ज्ञान स्वरुप में ध्यान करते हैं।
हृदय में सोलह पंखुड़ियों के कमल की कल्पना करें। उनमें प्रत्येक पंखुड़ी पर “अरि-ह-त-सि-द्ध-आ-य-रि-य-उ-व-ज्झा-य-सा-ह" इन अक्षरों को क्रमश: स्थापित करे । उस कमल के मध्य में मोक्ष प्रदायक श्रीपरमेष्ठी - बीज ॐ अथवा अहँ की स्थापना करें
और उसका ध्यान करे । यह बीज सब मंत्रों में प्रथम मंत्र है तथा विघ्नों के समूह का नाश करने वाला यही महानमंत्र है, जो इसका सदा ध्यान करते हैं, वे श्रीजिनेश्वर देव की कांति के समान कांतिवाले होते है। १८८ ____ मंत्र में जप, भक्ति और ध्यान का सामंजस्य है। मंत्र का प्रादुर्भाव शब्दोंसे होता है, परंतु मंत्र - जप का उद्देश्य और परिणाम शब्दसे अशब्द की ओर जाने का है, क्योंकि मंत्र शब्दमय तभी तक रहेगा, जब तक वह चेतना में साकार न हो जाए।१८९
नवकार मंत्र और चत्तारि मंगलं -
णमोकार मंत्र के साथ चत्तारि (मंगल) सर्वोत्तम शरणपाठ है।
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं । एसो पंच णमोकारो, सव्व पावप्पणासणो। मंगलणाणं च सव्वेसिं पढमं हवाइ मंगलं ।
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