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अनेक साधक इनके आधार पर नवकार मंत्र की जपसाधना में संलग्न है, जो आध्यात्मिक शांति का अनुभव करते हैं।
श्री पंच परमेष्ठी नमस्कार मंत्रकी आनुपूर्वीको जो भावपूर्वक गिनता है वह आत्मा सिद्धि सुख को प्राप्त करता है । छह महिने, या एक वर्ष तक तीव्र तप करने से जो पाप नष्ट होते हैं वे पाप नवकार मंत्र की आनुपूर्वी गिननेसे थोड़े समयमें नष्ट होते हैं ।१८०
नवकार मंत्र और ध्यान
जैन दर्शनमें ध्यान का भी बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है ।ध्यान तो तपभी कहा गया है। ध्यान तपके माध्यमसे साधक अपने चित्त की चंचलता को रोककर किसी एक विषयमें चित्त को केंद्रित करता है और आत्मशक्ति का विकास करके मुक्तिपथ पर प्रयाण कर सकता है । मुक्ति प्राप्ति के लिए - समाधि के लिए ध्यान अनिवार्य आवश्य है । समवायांग सूत्र, ठाणांगसूत्र, भगवती सूत्र और तत्वार्थ सूत्रमें ध्यानके बारे में अच्छी चर्चा मिलती है । तत्वार्थ - सूत्रमें आचार्य उमास्वातीजीने लिखा है कि - किसी एक विषय में चित्तवृत्तिका निरोध करना उत्तम संहननवालों के लिए ध्यान है ।१८१
सामान्यत: मानवी का मन एकसाथ भिन्न भिन्न विषय पर घूमता रहता है । मनको किसी एक विषय पर केंद्रित करना अत्यंत आवश्यक है। ध्यानशतक में लिखा है कि - जो स्थिर अध्यवसाय है वही ध्यान है। १८२ लोकप्रकाश ग्रंथ में लिखा है कि - मन, वचन, काया की स्थिरता को ध्यान कहते है। समाधि प्राप्त करने के लिए ध्यान बहुत उपयोगी है। साधक जबतक मनोनिग्रह नहीं करता है - मन पर अंकुश प्राप्त नहीं कर सकता है तब तक ध्यान और समाधि असंभव है। योगदृष्टि समुच्चय में भी लिखा है कि - समाधि प्राप्त करने के आठ क्रमिक सोपान है। इसमें से एक महत्त्व का सोपान ध्यान है। साधक के लिए यह सरल कार्य नहीं है। जितने समय के लिए किसी एक विषय पर मन की एकाग्रता टीक सकती है। उस एकाग्रताकोही ध्यान कहते है। एकाग्र चिंतनात्मक ध्यान की दृष्टिसे दशवैकालिक सूत्र में भगवान महावीरने ध्यान के मुख्य चार प्रकार प्ररुपित किये हैं। १) आर्तध्यान २) रौद्रध्यान ३) धर्मध्यान और शुक्लध्यान , समाधि और शांति की इच्छा रखनेवाले साधक के लिए आर्त और रौद्रं ध्यानका त्याग करना चाहिए और धर्म और शुक्ल ध्यान का चिंतन करना चाहिए।१८३ धर्म और शुक्ल ध्यानको ही ध्यान तप की संज्ञा दी गई है।
___ नवकार मंत्रमें धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान की संपत्ति सबसे बड़ी मूल्यवान रुपमें प्राप्त होती है।१८४ साधक क्रमश: धर्मध्यान और शुक्लध्यान की ओर आगे बढ़ता जाता है। १८५ मन,