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१) रेचक जप - प्राणवायु को देह के भीतर से नासिकाद्वारा बाहर निकालना रेचक कहा जाता है। ऐसा करते हुए जो नवकार मंत्र का जप किया जाता है वह रेचक जप कहलाता है। २) पूरक जप - प्राणवायु को नासिकद्वारा शरीर के भीतर ले जाना पूरक है। ऐसा करते हुए नवकार मंत्र का जो जप किया जाता है, वह पूरक जप है। ३) कुम्भक जप - प्राणवायु को देह के भीतर ले जाकर स्थिर करना, रोकना, कुम्भक कहा जाता है। वैसा करते हुए जप करना कुंभक जप है।
रेचक, पूरक, कुंभक का अष्टांग योग के चतुर्थ अंग प्राणायाम से संबंध है। ये प्राणायाम के तीन क्रम है। प्राणवायु का शरीर में सबसे अधिक महत्त्व है। सारे शरीर के संचालन में उसका मुख्य भाग है। इसलिए नवकार मंत्र को रेचक, पूरक और कुंभक के साथ जोड़ा गया है , जिसका अभिप्राय यह है कि वह व्यक्ति के श्वास - प्रश्वासन के साथ जुड़कर उसके जीवन का एक अंग बन जाये। ४) सात्विक जप - जो जप शांति और सुख हेतु किया जाता है वह सात्त्विक जप है। ५) राजसिक जप - जो जप रागात्मक कार्य के हेतु किया जाता है, वह राजसिक जप है। ६) तामसिक जप - जो जप क्रोध आदि के वश होकर तद्नुरुप कार्य हेतु किया जाता है, वह तामसिक जप है। ___सात्विक, राजसिक और तामसिक जप का आधार सत्त्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण है। इनमें सत्त्व गुण सात्विक भाव प्रधान है। वह उत्तम धार्मिक कार्यों के साथ संबद्ध है। रजोगुण रागप्रधान लौकिक कार्य से संयुक्त होता है । तमोगुण अज्ञानप्रधान होता है। जिस प्रकार अंधकार प्रकाश को रोकता है उसी प्रकार तमोगुण अज्ञान प्रधान होता है। जिस प्रकार अंधकार प्रकाश को रोकता है उसी प्रकार तमोगुण आत्मा के उद्योत को आवृत करता है। क्रोध, रोष, उत्तेजना के रुप में प्रगट होता है। इन तीनों प्रकार के जपों में सात्त्विक जप आदेय है, मुमुक्षु जनों के लिए स्वीकार करने योग्य हैं किंतु राजसिक और तामसिक जप अशुभ बंध हेतु हैं अत: वे मुमुक्षओं के लिए परिहेय - त्यागने योग्य है । यहाँ उनकी लोक प्रचलितता को ध्यान में रखते हुए उन्हें जप के भेदों में लिया गया है। जैसे आर्तध्यान और रौद्रध्यान दोनों पाप बंध के हेतु है, फिर भी ध्यान के भेदों में उनको गृहीत किया जाता है , वही बात राजसिक और तामसिक जप के साथ है। ७) स्थिरकृति जप - जहाँ साधक किसी भी प्रकार के विघ्नों के आने पर भी जप से विचलित नहीं होता, अत्यंत स्थिरता पूर्वक जप में संलग्न रहता है, वह स्थिर कृति जप है। ८) स्मृति जप - दृष्टि को नेत्रों के दोनों भौओं के मध्य से नासिका के अग्रभाग पर स्थिर कर, मंत्र का मन से जप करना स्मृति जप है।
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