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अभ्यासेन स्थिरं चित्तम्, अभ्यासेनानिल च्युतिः।
अभ्यासेन परानन्दो, अभ्यासेनात्मदर्शनम् । * अभ्यास से चित्त स्थिर होता है । अभ्यासद्वारा प्राणवायु को नियंत्रित किया जा सकता है। अभ्यासद्वारा परमानंद की प्राप्ति की जा सकती है तथा अभ्यासद्वारा ही आत्मदर्शन प्राप्त हो सकता है। १७४
वचनयोग से मनयोग की अधिक विशेषता है। इसलिए मानस जप अत्यंत श्रेष्ठ है। महापुरुषोंने स्तोत्र की अपेक्षा जप को कोटि गुणा अधिक लाभप्रद बताया है। उन महापुरुषों ने योगजनित ज्ञान के बल से यह प्रत्यक्ष अनुभव किया । जप से आंतरिक परिणामों में उज्ज्वलता आती है। जप ध्यान की पृष्ठभूमि है।
५) ध्येयैकत्व जाप ___आत्मा ध्याता है - ध्यान करनेवाला है। परमात्मा ध्येय है। उनका ध्यान किया जाता है । जब ध्याता और ध्येय की भेद - रेखा मिट जाती है, जप करनेवाला ध्याता ध्येय रुप परमात्मा के साथ ऐक्य साध लेता है तब यह जप सिद्ध होता है। यह जप का सर्वोत्तम रुप है।
ये पाँच भेद जप द्वारा आत्मा को उत्कर्ष के उच्चतम भावतक पहुँचाने के सफल सोपान है। त्रयोदश विध जप - एक बहुत प्रसिद्ध उक्ति है -
"जपात् सिद्धिर्जपात् सिद्धिर्जपात सिद्धिर्नसंशयः" जप से सिद्धि होती है, जप से सिद्धि होती है, इसमें कोई संशय नहीं है। १७५ यह जप की महत्ता का शास्त्र वाचन है। इसी कारण जप की विविध प्रकार से व्याख्याएँ की गई है तथा भिन्न-भिन्न प्रकृति तथा रुचि युक्त व्यक्तियों की भूमिका के अनुसार जप के अनेक प्रकार बतलाये गये हैं। उन्हें जानकर अपनी - अपनी अभिरुचि के अनुसार साधक -साधना में प्रगति एवं उन्नति कर सकता है। एक विशेष अपेक्षा से जप के तेरह भेद भी बतलाये गये हैं, जो इस प्रकार है -
"रेचक-पूरक-कुम्भा: गुणत्रयं स्थिरकृतिस्मृति हक्का ।
नादो ध्यानं ध्येयैकत्वं तत्वं च जप-भेदाः॥" १) रेचक, २) पूरक ३) कुम्भक ४) सात्त्विक ५) राजसिक ६) तामासिक ७) स्थिरकृति ८) स्मृति ९) हक्का १०) नाद ११) ध्यान १२) ध्येयैक्य १३) तत्त्व - ये तेरह प्रकार के जप हैं ।१७६
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