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________________ सिद्ध हो जाता है, तब नाभिगत परावाणी से जप किया जाता है। इसे योग में अजपाजाप कहा जाता है। अभ्यास जब परिपक्व हो जाता है तो इस जाप में चिंतन के बिना भी नवकार महामंत्र का निरंतर रटन होता रहता है। यहाँ तक कि उपयोग न हो तब भी यह श्वासोच्छवास की तरह अपने आप चलता रहता है। इसका कारण दृढ़ संकल्प है। उदाहरणार्थ जैसे कोई व्यक्ति चार बजे उठने का दृढ संकल्प कर सो जाता है तो चार बजे ही स्वयंही उसके नेत्र खुल जाते हैं, उसी प्रकार दृढ संकल्प और दीर्घकालीन अभ्यास के परिणाम स्वरुप अजपाजाप सिद्ध हो जाता है। देह के रोम -रोम से आराध्य देव का स्मरण अपने आप होने लगता है। इस जाप से साधक को एक ऐसे आध्यात्मिक सुख की अनुभूति होती है, जो शब्दोंद्वारा वर्णित नहीं की जा सकती। जप के अंतर्गत ॐ - जप, हृदयजप, नित्य जप, काम्य जप, प्रायश्चित जप, अचल जप, चल-जप, वाचिक जप, उपांशु जप, मानस जप, अखंड जप एवं अजपाजप आदि का भी विवेचन हुआ है। १७२ पंच विध जपशास्त्रों में एक अपेक्षा से जप के पाँच भेदों का वर्णन आया है। शाब्दाजापान्मौ नस्तस्मात् साथस्ततोऽपि चित्तस्य । श्रेयानिह यदि वाऽऽ त्मध्येयैक्यं जापसर्वस्वम् ।। इस श्लोक के अनुसार शब्द, मौन, सार्थ, चित्तस्थ तथा ध्येयैक्य जप के ये पाँच प्रकार है। १७३ इनका संक्षिप्त विवेचन निम्नांकित है। १) शब्द जाप - जहाँ जप में शब्दों का उच्चारण व्यक्त रुप में होता है औरों को सुनाई देता है, वह शब्द जाप है। इसे भाष्य जाप या वाचिक जाप भी कहा जाता है , क्योंकि इसमें भाषा या वाणी का स्पष्ट रुप में प्रयोग होता है। २) मौन जाप जिसमें वाणी या शब्द बाहर प्रगट नहीं होते, भीतर मानसिक दृष्टि से मंत्र के पदों का आवर्तन होता है, वह मौन जाप है। ३) सार्थ जाप - जहाँ मंत्र का जाप करते समय उसका अर्थ ध्यानमें रखा जाये, वह सार्थ जाप कहा जाता है, जैसे - णमो अरिहंताणं पद का उच्चारण करते ही मन में समवशरण में विराजित, (१३७)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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