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। यह जप का क्रम साधारण साधकों की दृष्टि से है, जो पूर्व जन्म के उच्च संस्कारों से युक्त होते है, उनके लिए इस क्रम को स्वीकार करना आवश्यक नहीं है । वे भाष्य तथा उपांशु जप के अभ्यास के बिना ही मानस जप प्राप्त कर लेते हैं। इन तीनों जपों का संक्षिप्त वर्णन निम्नांकित है। भाष्य जप
"भाषितुं योग्यं भाष्यम्” जो भाषा द्वारा उच्चारित होने योग्य होता है, बोला जाता है, उसे भाष्य कहा जाता है अथवा “यस्तु परैः श्रुयते स भाष्यः” जो दूसरों के द्वारा सुना जा सके, वह भाष्य है। इन दोनों शाब्दिक व्युत्पत्तियों का यह अभिप्राय है कि जो जप ओष्ठ हिलाकर स्पष्टउच्चारणपूर्वक किया जाता है, वह भाष्य जप कहलाता है। वह वैर वरी वाणी व से संबद्ध होता है। साधक मधुर स्वर से ध्वनियों का स्पष्ट उच्चारण करता हुआ उसका अभ्यास करे । भाष्य जप से चित्त में नीरवता, शांतता आती है। यह वचन-प्रधान है। इसलिए इसे वाचक जप या मुखर जप भी कहा जाता है। यह जप जब भलीभाँति सिद्ध हो जाता है तब साधक उपांशु जप के अभ्यास में तत्पर होता है। उपांशु जप -
उपांशु जप के लिए कहा गया है - उपांशुस्तु परैरश्रयमाणोऽन्तर्जल्प: १७० जप करते समय दूसरों सुन सके, जो अंतर्जल्प रुप या आभ्यांतरिक रटन रुप हो, वह उपांशु जप कहा जाता है । इन जप में ओष्ठ, जिव्हा आदि मुख के अंगों का व्यापार तो गतिशील रहता है किंतु व्यक्त रुप में ध्वनि या आवाज नहीं होती। इसमें वाचिक प्रवृत्ति निवृत्त हो जाती है, कायिक प्रवृत्ति अभिव्यक्त रहती है। सावधानी के साथ साधक इसका अभ्यास करता जाये तो वह आगे मानस जप में पहुँच जाता है, जो पश्यंती वाणी से संबद्ध हैं।
मानस जपमानस जप का लक्षण बतलाते हुए कहा गया है - मानसो मनोमात्रवृत्तिनिवृत्तः स्वसंवेद्य:१७१
जो केवल मन की वृत्ति द्वारा होता है, जिसमें कायिक और वाचिक प्रवृत्ति निवृत्त हो जाती है, जिसे साधक स्वयं अनुभव कर सकता है, वह मानस जप है। वह सूक्ष्म और सारगर्भित है।
___ जप करते समय दृष्टि मंत्र के अक्षरों पर रहे । बाह्य रुप में नासिका के अग्रभाग पर टिकी रहे। यदि ऐसा करने का साधक को अभ्यास न हो तो वह अपने नेत्रों को बंद रखें। कल्पना में अक्षरों को लक्ष्य में रखकर जप करता रहे। जब मानस-जप सम्यक् अभ्यस्त या
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