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________________ मालाएँ सूत, चंदन, स्फटिक, विद्रुम ( मूंगा) रुद्राक्ष, वैजयंती आदि अनेक प्रकार की प्रयोग में ली जाती है। इनमें से साधक अपनी रुचि के अनुरुप माला का प्रयोग कर सकता है। इन तीन प्रकार के जप के क्रमों में कमल - जाप्य को उत्तम माना जाता है। वहाँ मन का उपयोग अधिक स्थिर रहता है। कर्मों के बंधनों को क्षीण करने में यह विधि अधिक लाभप्रद है। इसमें जप के साथ - साथ ध्यान भी सिद्ध होता है। मन को एकाग्र करने में इस विधि से विशेष प्रेरणा तथा शक्ति प्राप्त होती है किंतु यह जप भलीभाँति समझकर अभ्यास करने से सिद्ध होता है, क्योंकि यह मन की शुभ्र परिकल्पनाओं पर आधारित है। कल्पनाद्वारा मंत्र के पदों का कर्णिका पर एवं पत्रों पर भावात्मक रुप में अंकन करना, चिंतन करना सरल नहीं है। किंतु सतत प्रयत्न और अभ्यास से यह हो सकता है। जप का त्रिविध क्रम आध्यात्मिक साधना के मार्ग में जप का वास्तव में बहुत महत्त्व है । वह अपने आराध्य देव के पावन शुद्ध स्वरुप को प्राप्त करने में बहुत सहायक सिद्ध होता है। महर्षि पंतजलि ने योगसूत्र में जप की परिभाषा करते हुए लिखा है - "तज्जपस्तदर्थभावनम् " जिनका जप किया जाये, उनके अर्थ की मन में भावना की जाये। वैसा करने से जप सार्थक और सफल होता है। १६९ जप के सूक्ष्म गहन स्वरुप पर विद्वानों ने अनेक प्रकार से व्याख्याएँ की है। उनका एक ही लक्ष्य रहा कि जप में लोगों की प्रवृत्ति हो, उसके रहस्य का उन्हें ज्ञान हो तथा अभ्यास में उनकी अभिरुचि बढे । अनेक अपेक्षाओं से जप के अनेक भेद किये गये हैं। जप का मूल स्वरुप, तत्व एक ही है। उसे अधिकृत करने में साधक को अनुकूलता और सुविधा हो, अतएव विवेचन में विविधता का अवलंबन किया गया है। उनके अनुशीलन से ज्ञान की वृद्धि होती है । बुद्धि में निर्मलता आती है तथा भावनाओं में पवित्रता का संचार होता है। मंत्रात्मक विवेचनों और व्याख्याओं का गहन अध्ययन स्वाध्याय का महत्त्वपूर्ण विषय है। ज्ञान तथा विवेक के साथ की गई साधना की फलवता विलक्षण होती है। विद्वदज्जनों ने एक अपेक्षा से भाष्य, उपांशु तथा मानस- जप को तीन भेदों में विभक्त किया है। उन्होंने बतलाया है कि ये जप क्रमश: उत्तरोत्तर अधिक श्रेष्ठ है अर्थात् भाष्य जप से उपांशु जप एवं उपांशु जप से मानस जप अधिक फलप्रद है । भाष्य जप अभ्यास का प्रारंभ है जो उत्तरोत्तर विकसित होता हुआ उपांशुजप में परिणत हो जाता है (१३५)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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