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________________ नवकार मंत्र की अपरिवर्तनशीलता जो तत्व शाश्वत होते हैं, नित्य होते हैं, उनका मूल स्वरुप कभी भी परिवर्तित नहीं होता। वह सदैव अपरिवर्तनशील रहता है। नवकार मंत्र एक ऐसा ही शाश्वत सत्य है, परम तत्व है । नवकार भी एक आध्यात्मिक विधान का द्योतक है। वह सद्गुण निष्पन्न आध्यात्मिक पृष्ठभूमि के आधार पर अवस्थित है । संसार के सब प्रकार के विधानों की तुलना में नवकार मंत्र का विधान सर्वोत्तम और सर्वोपरि है क्योंकि वह सब अपेक्षाओं से परीपूर्ण है । नवकार मंत्र की शब्दावली अपनी सूक्ष्म तत्वगर्भिता के कारण अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । अनादिकाल से नवकार अपने एक ही रूप में चला आ रहा है। उसका अपना शाश्वत अनादि अनंत है । वह त्रैकालिक सत्य पर आधारित है। वह सदैव अतीत में इसी रुप में रहा है । वर्तमान में इसी रुप में विद्यमान है और भविष्य में भी वह ऐसा ही अपरिवर्तनशील रहेगा। नवकार मंत्र जैन शासन का अनादिकालिन एकमात्र मूल मंत्र है। कोटिकोटि श्लोक परिमित दृष्टिवाद द्वारा जो साधा जा सकता है, वह नवपद युक्त छोटे से नवकार मंत्र में विद्यमान, विशाल अर्थ के चिंतनद्वारा सहजही प्राप्त किया जा सकता है । इस कारण नवकार मंत्र को चौदह पूर्वो का सार कहा गया है तथा समग्र स्मरणों में यह प्रथम सर्वोत्तम स्मरण माना गया है। यह संसार परिवर्तनशील है । आज तक अनंत पुद्गल परावर्तों के अंतर्गत यह अनंत रुपों में परिवर्तित होता रहा है। आज जो जीव जिस पर्याय में है, अपनी कर्मबद्धता के कारण इससे पहले न जाने कितनी गतियोंमें, कितने रूपोंमें, कितनी पर्यायों में परिणत, परिवर्तित होता रहता है । एक जीव संसार के समस्त पुद्गलों को जब एक बार किसी न किसी रुप में भोग लेता है, काम में ले लेता है उसे एक पुद्गल परावर्तन को जाता है। जैन दर्शन में पुद्गल शब्द भौतिक परमाणु पूंज के लिए प्रयुक्त हुआ है। जीव अनंत पुद्गल परावर्तन करता है । देह रुप आदि की दृष्टि से उसमें अनंती बार परिवर्तन होता रहता है किंतु नवकार मंत्र सदैव अपरिवर्तनशील रहता है। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल चक्रों के अंतर्गत तीर्थंकरों की अनंती चौबीसियाँ परिवर्तित होती रहती है किंतु नवकार मंत्र कभी भी कदापि परिवर्तित नहीं होता, सदा एक रुप में होता है । भिन्न-भिन्न तीर्थकर अपने-अपने काल में जो धर्मदेशना देता हैं उनमें ये नवकार मंत्र अपरिवर्तित रुप में ही उद्देशित होता है। वह किंचित मात्र भी नहीं बदलता । नवकार मंत्री ( १३०)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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