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________________ आठ प्रकार के कर्म बतलाये गये हैं - १) ज्ञानावरण २) दर्शनावरण ३) वेदनीय ४) मोहनीय ५) आयुष्य ६ ) नाम ७) गौत्र और ८) अंतराय - ये आठ कर्म है । १५४ विनय में ऐसी शक्ति है कि वह इन आठों कर्मों को दूर करने में समर्थ है। इसका भाव यह है आठ कर्मो के बंधने के मुख्य कारण १) जातिमद, २) कुलमद ३) बलमद ४) रुप मद ५) तप मद ६) श्रुत मद ७) लाभ मद ८ ) ऐश्वर्य मद १५५ - ये आठ प्रकार के मद हैं । विनय ऐसा गुण है जो आठों मदों का मूलच्छेद कर सकता है। - यह आत्मा अनादिकाल से चले आते कर्म संबंध के कारण परतंत्र, परवश और क्षुद्र दशा में विद्यमान हैं । सर्वज्ञ देव के वचनद्वारा ऐसा ज्ञान होता है, उसका चिंतन करने से जाति, कुल, रुप, बल, लाभ एवं ऐश्वर्य आदि से उत्पन्न होने वाले मद अभिमानयुक्त भाव नष्ट हो जाते हैं तथा साधक में विनम्रता उदित होती है १५६ 1 नवकार मंत्र साधक के अंत:करण में ऐसे भाव उत्पन्न करते है और आत्मा को धर्म से संयोजित करता है । क्रोध, मान, माया, लोभ - चार कषाय १५७ तथा आहार, भय, मैथुन एवं परिग्रह चार संज्ञाएँ १५८ श्रोतकेन्द्रिय, चक्षुन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय, इन पाँचों इन्द्रियों को १५९ पाँचों विषय, आठ कर्मों के कारण भूत है, जो जीव इनके कठोर परिणामों से, भव भ्रमण से भयभीत होता है, वह सद्धर्म को प्राप्त करने का वास्तविक अधिकारी या पात्र होता है। जिन जीवों ने धर्म को प्राप्त किया, जो धर्म के पथ पर प्रगतिशील हुए, जिन्होने साधना में उत्कर्ष प्राप्त किया, उनके प्रति नवकार के आराधक के मन में भक्ति एवं प्रमोद भाव उदित होता है। जो धर्म को प्राप्त नहीं कर सकते हैं, उनके प्रति उनके मन में करुणा, माध्यस्थ भाव आता है। वह सोचता है कि ये लोग कितने अभागे हैं जो इतने उत्तम धर्मोको भी स्वीकार नहीं कर सके । बेचारे दया के पात्र हैं । जब जीवन में विनय भाव परिव्याप्त हो जाता है । तभी इसप्रकार के उत्तम भाव मन में आते हैं, वैसा व्यक्ति किसी को छोटा यातुच्छ नहीं मानता । वह यही सोचता है कि किसी व्यक्ति में जो निम्नता, हीनता या तुच्छता है वह उसके अपने कर्मों का फल है। उसके अध्यवसाय, हीनता का परिणाम है। इसलिए न उसके मन में क्षुब्धता, क्रुरता आती है और न घृणा ही उत्पन्न होती है। वह अपने मन में तटस्थता बनाये रखता है, वैसा करनेवाला साधक अपनी साधना पथ से विचलित नहीं होता । विनीतता या विनम्रता नवकार मंत्र की एक ऐसी अनुपम अमूल्य देन है, जो साधक आत्मा के उर्ध्वगामी पथ पर सदा अग्रसर बनाती रहती है । नवकार मंत्र में वर्णित परमेष्ठी भगवान् जो सबके लिए नमस्करणीय है, इसी भाव का स्पर्शकर वे वैसे बनते हैं । वास्तव में जो नमस्करणीय नमस्कार करने योग्य है- उनको नमस्कार करने से जीवन में सच्चा नमस्कार भाव, विनय भाव अवतरित होता है । १६० (१२९) -
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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