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________________ 1 प्राप्ति के प्रशस्त पथ पर प्रगतिशील बनाती है । अंततोगत्वा आराधक की आराधना सिद्ध सफल हो जाती है। नवकार से विनय का उद्बोध : विनय आत्मा का मूल गुण है। उससे जीवन में ऋजुता, मृदुता और सहृदयता आती है। अहिंसा आदि समस्त धर्मों में विनय का प्रमुख स्थान है । नमस्कार से विनय का उद्भव ' होता है। धर्म को समझने हेतु कर्मों के स्वरूप के समझना आवश्यक हैं, जो कर्म - सिद्धांत को जान लेता है, उसमें अवश्य ही नम्रता आती है, क्योंकि वह समझता है कि इस संसार में जो कुछ ष्टगोचर हो रहा है वह सब कर्मों की फल- निष्पत्ति का ही विस्तार है । उसे देखते हुए कौन किस बात का गर्व करे। ऐसा चिंतन सहजरूप में अंत:करण में विनम्रता की भावना को उजागर करता है, विकसित करता है । नम्रता से संयम का भाव उदित होता है। नवकार मंत्र विनयभाव को उत्तरोत्तर बल प्रदान करता है । विनयशील पुरुष नये कर्मों के निरोध और पुराने संचित कर्मों के निर्जरण का, तपश्चरण का मार्ग अपनाता है । वह उसमें परिश्रांत नहीं होता । वह सदा उल्लसित, हर्षित एवं प्रफुल्लित रहता है । आध्यात्मिक साधना उसके लिए सहज बन जाती है, जो धर्माचरण करता हुआ अहंकार करता है, उसकी धर्माराधना वास्तव में आराधना नहीं है । वह तो बाह्य क्रिया मात्र है। धर्म का आभास मात्र है। कर्मों की भयानकता एवं दुःखजनकता को जानने से जो नम्रता उद्भुत होती है । वह वास्तविकता नम्रता है । जब तक कर्मों के स्वरुप का बोध न हो तब तक कर्म रुपी कचरे को आत्मा से निष्कासित करने की तथा उसे रोकने की वृत्ति ही उत्पन्न नहीं होती । नम्रता को उत्पन्न करनेवाला तत्वज्ञान यदि प्राप्त न हो तो आत्मा कर्मों को क्षीण करने वाला तत्वमूलक धर्म कोपा नहीं सकता । दशवैकालिक सूत्र में प्रारंभ में ही कहा गया है - - उत्कृष्ट मंगल है। वह अहिंसा, संयम एवं तप रुप है। जिसका मन सदा उस धर्म में संलग्न रहता है, देव भी उनको नमस्कार करते हैं। वह इस धर्म के कारण अत्यंत पूज्य, पवित्र और देव - वंद्य हो जाता है। १५३ अहिंसा, संयम तथा तप मूलक धर्म को प्राप्त करने के लिए कर्म की सत्ता, बंध, उदय उदीरणा आदि जिनका सर्वज्ञ जिनेश्वर देव ने निरुपण किया है, जानना आवश्यक है । जानने से ही अहिंसा आदि धर्मो को साधक अंगीकार कर सकता है । (१२८)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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