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________________ हितयुक्त वचन बालकद्वारा भी कहा जाये तो उसे ग्रहण करना चाहिए । दुर्जन के प्रलाप को सुनकर उसके प्रति अपने मन में द्वेष भावना नहीं लाना चाहिए। दूसरों से आशा करने का त्याग करना चाहिए तथा समस्त संयोगों को बंधन रुप समझना चाहिए । दूसरे यदि स्तुति या प्रशंसा करें तो गर्व नहीं करना चाहिए। यदि वे निंदा करें तो क्रोध नहीं करना चाहिए। धर्माचार्यो की सेवा करनी चाहिए तथा तत्वों के संबंध में जिज्ञासा करनी चाहिए एवं तत्व बोध प्राप्त करने का उद्यम करना चाहिए । शौच-आंतरिक पवित्रता, स्थिरता, दंभ - शून्यता तथा वैराग्य का सेवन करना चाहिए | अभ्यास करना चाहिए । आत्म निग्रह करना चाहिए । आत्मा को अशुभ प्रवृत्तियों से, सावद्य कार्यों से बचाना चाहिए तथा शरीर आदि के वैरुप्य का विकार या नाश का चिंतन करना चाहिए । १५२ - उपर्युक्त शिक्षायें एक आराधक के लिए उसके जीवन का मूल मंत्र है। जिन का अनुसरण करने से वह आत्मस्थिरता और प्रशांतता प्राप्त करता है। ऐसे साधक को पंचपरमेष्ठी भगवंतों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है क्योंकि श्रद्धा को विचलित करनेवाले दुर्गुणों को वह समाप्त कर देता है। श्रद्धा ज्यों-ज्यों उत्कर्ष प्राप्त करती है वैसे-वैसे साधक में पंचपरमेष्ठी के साथ तादात्म्य भाव निष्पन्न होता है । नमस्कार महामंत्र की वास्तविकता का उसे परिचय प्राप्त होता है और वह अनुभव करता है कि नवकार मंत्र आध्यात्मिक समृद्धि का शब्दात्मक प्रतीक है । समुचित योग्यता संपन्न आराधक यह समझ लेता है कि जिस प्रकार भोजन का प्रत्येक कण देह की पुष्टी करता है । इन्द्रिय शक्ति की वृद्धि करता है। क्षुधा को दूर करता है, उसी प्रकार नवकार मंत्र का एक बार भी स्मरण करने से अज्ञान, कषाय और प्रमाद शांत होते हैं, बार - बार जप करने से मानसिक एवं बौद्धिक शुद्धि होती है। अभ्यास और अनुभव से साधक यह चिंतन करता है कि नवकार मंत्र में निरुपित, वंदित पंचपरमेष्ठी भगवंतों में मन लगाना, यद्यपि पर्वत पर आरोहण करने जैसा दुष्कर कार्य है, किंतु पर्वत पर चढ जाने के पश्चात् सुंदर स्वास्थ्यप्रद मनोज्ञ वायुमंडल की प्राप्ति से मन आह्लादित हो जाता है । उसी प्रकार नवकार मंत्र में मन लगाना, तन्मय होना, कोई सरल कार्य नहीं है । बहुत ही कठिन है किंतु प्रयत्न और लगन से वह कठिनाई दूर हो जाती है । नवकार मंत्र में मन तन्मय हो जाता है । आत्मा आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति करता है। यह तभी होता है जब साधक अपने आप को बाहरी और भीतरी दुर्गुणों और दोषों से अपने को दूर कर देता है । आत्म-सूचिता या भवसिद्धि प्राप्त कर लेता है । वैसे आराधक द्वारा निष्पादित नवकार की आराधना बहुत ही फलप्रद सिद्ध होती है। साधक को परमात्म (१२७)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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