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जप करनेवाले साधक को यह विचार करते रहना चाहिए कि परमेष्ठी भगवंतों का हमारे उपर कितना उपकार है, कितना ऋण है। परमेष्ठी भगवंतों का आलंबन, आश्रय न मिलने से अतीत में अनंत भवों में भ्रमण करना पड़ा। उनका आलंबन प्राप्त होने से उन भवों का अंत हो रहा है। यह सोचकर मन में प्रसन्न होना चाहिए। नवकार साधना की सच्ची प्रक्रिया :
नवकार साधना करने के लिए निम्नलिखित बातें जीवन में उतारनेसे नवकार साध्य होता है। १) नवकार इष्टदायक है ऐसी दृढ़ श्रद्धा रखना। २) सभी के साथ हृदयपूर्वक क्षमापना करना और मैत्र्यादि भावनासे शुद्ध बनना। ३) अरिहंतका रातदिन रटन करना । ४) मन का रात-दिन निरीक्षण करना ५) नवकार के प्रति समर्पण भाव रखना और कर्तृत्वभाव को छोड़ना । साधनामें उपर्युक्त बातों का बहुत बड़ा महत्त्व है।१४८
जप का लक्ष्य स्पष्ट और निश्चित कर लेना चाहिए । इस संबंध में चिंतन करना चाहिए कि संसार के सब जीवों का हित हो । सभी जीव अरिहंत देव के धर्म शासन में अभिरुचिशील बनें। भव्य आत्माओं को मोक्ष की प्राप्ति हो । धर्मसंघ का कल्याण हो । विषयों और कषायों की परतंत्रता से मुझे शीघ्र मुक्ति प्राप्त हो । मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ्य आदि भावनाओं से मेरा हृदय सदैव अनुभावित रहे । जप करते समय इस प्रकार के उच्च महान उद्देश्य स्वीकार करने चाहिए । जप करते समय चिवृत्ति में यदि चंचलता आये तो थोड़ी देर के लिए जप बंद कर देना चाहिए तथा निम्नांकित भावों के चिंतन में अपने चित्त को लगाना चाहिए।
सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखभागभवेत् ।। संसार के सभी प्राणी सुखी हों, सभी प्राणी स्वस्थ हों, सभी प्राणी कल्याण प्राप्त करें, कोई भी दु:खी न बने । १४९
इस प्रकार के और भी उत्तम भावों का अनुचिंतन करना चाहिए। जैसे विश्व के समस्त दोषों का नाश हो, समस्त जीवों को सद्बुद्धि प्राप्त हो, बोधिबीज प्राप्त हो, विश्वमैत्री का भाव उत्तरोत्तर वृद्धिगंत हो।
चित्त में इस प्रकार के उत्तम विचारों के लाने से चंचलता दूर होती है । चित्त पुनः स्वस्थ हो जाता है। जप के उत्तम भाव में पुन: संलग्न हो जाता है। तब फिर जप को चालू कर देना चाहिए । चित्त में समता युक्त भाव रखना चाहिए । समता से जप में सहज तथा प्रगति होती है। चित्त में शांति का साम्राज्य स्थापित होता है। जिससे नवकार का स्मरण
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