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________________ "न वेगान् धारयेत् धीमान्" अर्थात् बुद्धिमान् पुरुष शरीर के वेगोंको - शौच, प्रस्रवण आदि को रोके नहीं। ऐसा करने से शरीर में व्याधि उत्पन्न होती है तथा मन भी विकारग्रस्त होता है इसलिए मंत्र, जप में संलग्न होने से पूर्व इन से निवृत्त होना आवश्यक है। शरीर को यतनापूर्वक शुद्ध करना चाहिए । जब जप में सक्रिय हो जाये ,तब देह को स्थिर रखना चाहिए। हाथ-पैर अंगुली आदि शरीर के किसी भी भाग को चंचल नहीं होने देना चाहिए, हिलाना - डूलना नहीं चाहिए। शरीर तथा उसके अंग-प्रत्यंग सुस्थिर अविचल रहे, इस हेतु अनवरत प्रयत्नशील रहना वांछनीय है।१४६ इन आठ प्रकार की शुद्धियों में देह, मन और आत्मा - तीनों की परिशुद्धि आवश्यक है। वैसा होने से मंत्र जप का बहुत उत्तम फल होता है। नवकार के आराधक - जो नवकार मंत्र की आराधना, जप,ध्यान, स्मरण आदि करने में विश्वास रखते हैं, उस दिशा में प्रयत्नशील रहते हैं वे नवकार के आराधक कहे जाते हैं । नवकार मंत्र का उच्चारण करने से शुभोपयोग निष्पन्न होता है। जब अंत:करण में इस महामंत्र के प्रति आस्था जागृत होती है और इस महामंत्र में वर्णित महान् पवित्र आत्माओं का स्मरण किया जाता है, साधक की मनोवृत्ति आत्मस्वरुप की परिणति की और झुकती है। ज्यों - ज्यों भावनाओं में पवित्रता आती-जाती है, आराधक की आराधना प्रबल बनती जाती है और वह शुभोपयोग से शुद्धोपयोग की दिशा में आगे बढ़ता है। ___ शुभोपयोग शुभ कर्म या पुण्य बंध का हेतु हैं। जब साधक की साधना उच्च स्थिति पा लेती है तब शुभ का स्थान शुद्ध ले लेता है। शुद्धोपयोग में शुभ बंधन भी नहीं होता। वह आत्मा की शुद्धावस्था से संबद्ध है। कर्मबंध तो अशुभोपयोग और शुभोपयोग में ही होता है। शुद्धोपयोग में आ जाने पर पाप और पुण्य के बंधन अवरुद्ध हो जाते हैं।१४७ आराधक के लिए प्रयोजनभूत ज्ञान - नवकार मंत्र के जप की सिद्धि के अभिलाषी साधक को जप में अत्यंत प्रयोजनीय ज्ञान रुचि पूर्वक अर्जित करने का प्रयास करना चाहिए। उसे यथाशक्ति जीवन में उतारने की भावना रखनी चाहिए। ऐसा हुए बिना साधना के मार्ग में आगे नहीं बढ़ा जा सकता। साधक को परमेष्ठी भगवंतों का स्वरुप गुरुजनों के सान्निध्य से, शास्त्रों के अध्ययन से समझना चाहिए। समझकर उसका पुन: पुन: चिंतन, मनन करना चाहिए । उसको अपने नाम की तरह आत्मसात करना चाहिए। जैसे अपना नाम लेते ही अपना समस्त स्वरुप ध्यान में आ जाता है, उसी प्रकार जप करते समय मंत्राक्षरों का अर्थ अपने मन के समक्ष प्रकट होना चाहिए। (१२३)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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