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गीता में एक प्रसंग है - अर्जुन ने योगिराज श्रीकृष्ण से कहा भगवन् ! यह मन बहुत चंचल है, प्रमथनशील है, बड़ा दृढ और बलवान है। जिस प्रकार वायु को निगृहीत करना - रोकना दुष्कर है, उसी प्रकार मन को वश में करना बहुत कठिन है ।
इस पर श्रीकृष्ण ने उसे उत्तर दिया कि अर्जुन ! वास्तव में मन को वश में करना बहुत है । यह सही है कि मन चंचल है किंतु अभ्यास से और वैराग्य से उसको वश में किया जा सकता है। १४५
गीता में आये हुए इस प्रसंग से यह स्पष्ट है कि साधक यदि वैराग्य पूर्वक जप के साधन में संलग्न रहे, अपने अभ्यास में स्खलित न हो तो वह मन को जीतने में समर्थ हो सकता है। ७) वचन - शुद्धि :
मानव के दैनंदिन व्यवहार में वाणी या वचन का अत्यंत महत्त्व है । वचन का अर्थ बोलना या उच्चारण करना है। मंत्र का उच्चारण शुद्ध रुप में किया जाये, यह आवश्यक है। शास्त्रों में, पाठ में, मंत्र के उच्चारण में स्वर, ध्वनि आदि की शुद्धता पर बहुत बल दिया गया है। मंत्र में अक्षरों, मात्राओं आदि की दृष्टि से एक सामंजस्य होता है । उसमें एक अद्भुत शक्ति सन्निहित होती है । यदि उसके उच्चारण में जरा भी अशुद्धि हो तो वह सामंजस्य विकृत हो जाता है। मंत्र अशुद्ध उच्चारण करने से उसका यथेष्ट फल नहीं होता।
कुछ लोग इस संबंध में ऐसा कहते हैं कि यदि मंत्र का जप करने वाले व्यक्ति के मन ठीक हो तो शुद्ध - अशुद्ध जैसा भी मंत्र का उच्चारण किया जाये, अच्छा है । यह मान्यता यथार्थ नहीं है, क्योंकि शब्द का अपना विज्ञान है ।
न्यायशास्त्र में ‘शब्दगुणमाकाशम्' ऐसा कहा गया है, जिस का अर्थ है कि शब्द आकाश का गुण है। ज्यों ही उसका उच्चारण किया जाता है वह अपने स्वरुप या कलेवर के अनुसार वातावरण में तरंगें उत्पन्न करता है। आकाश में उठी हुई, फैली हुई तरंगों का अपना विशेष प्रभाव है । शब्दों का तरंगों के साथ वैज्ञानिक संबंध है। शुद्ध उच्चारण से जो तरंगे उत्पन्न होती है, उनकी फल - निष्पत्ति आत्मा के लिए श्रेयस्कर होती है। अशुद्ध उच्चारणद्वारा उत्पन्न होनेवाली तरंगों का फल श्रेयस्कर नहीं होता ।
यहाँ और एक विशेष बात ज्ञातव्य है । जप करते समय यदि मंत्र का उच्चारण मन के भीतर ही किया जाये, मुँह द्वारा शब्दों के बाहर न निकाला जाये तो और भी उत्तम फलनिष्पत्ति होती है। ऐसा अनुभवी साधकों का मत है ।
८) देह - शुद्धि :
मंत्र जप में यह भी आवश्यक है कि शरीर शुद्धि युक्त हो । शौच आदि शारीरिकी शंकाओं से निवृत्त होकर साधक को जप के अभ्यास में संलग्न होना चाहिए। आयुर्वेद में कहा गया है -
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