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________________ जाये, ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है। जिस आसन का प्रयोग करने से मन में स्थिरता तथा प्रशांतता रहे, उसी का जप या ध्यान में प्रयोग करना समुचित है। १४३ ___ आचार्य हेमचन्द्र ने ध्यान में आसन प्रयोग के साथ - साथ कुछ और भी सूचनाएँ दी है, जो जप या ध्यान के अभ्यासार्थी के लिए बहुत ही उपयोगी है। उन्होंने लिखा है - ध्यान में तत्पर साधक सुखासन में बैठे । उसके दोनों ओष्ठ परस्पर मिले हुए हों। दोनों नेत्र नासिका के अग्रभाग पर संस्थित हो। अपने मुँह के भीतर दांतों को इस प्रकार रखें कि ऊपर के तथा नीचे के दाँतों का आपस में स्पर्श न हो । मुख प्रसन्नता युक्त हो । पूर्व या उत्तर दिशा में हो। प्रमाद या असावधानी से रहित हो । उसका मेरुदंड सीधा और सुव्यवस्थित हो। १४४ जपाभ्यासी को उस प्रकार के आसन में स्थित नहीं होना चाहिए, जिससे देह के अंगों में खिंचाव हो, बैठे रहने में कठिनाई या असुविधा हो । वैसा होने से मन जप या ध्यान से हटकर देह पर चला जायेगा, जिससे जप की निरंतरता भग्न होगी। जप में बाधा उपस्थित होगी। जप करते समय मुख पूर्व दिशा या उत्तर दिशा की और रहे, यह अपेक्षित है। साथ ही साथ जपाभ्यासी को जप प्रारंभ करते समय मन में यह संकल्प करना चाहिए कि मैं इतने समय तक जप करुंगा। इससे जप की क्रीया में दृढ़ता एवं स्थिरता का समावेश होता है। ५. विनय -शुद्धि : विशेषेण नय: विनय: विशेष रुप से नत होना झुकना विनय है। आराध्य या पूज्य के प्रति विनितभाव विनय कहलाता है। साधक जब नवकार मंत्र का जप करे, उस समय उसके मन में पंचपरमेष्ठी भगवंतों के प्रति निरंतर विनयभाव रहे। उसके मन में हिंसा और अविनय युक्त विचार न आये, ऐसा वह ध्यान रखें। मन में जप के प्रति श्रद्धा, अनुराग और उत्साह रहे । वैसा होने से जप में प्रगति होती है। जिस आसन पर वह बैठे, उसका सावधानी पूर्वक प्रतिलेखन करें । गमनागमन में हिंसा न हो, इसका पूरा ध्यान रखें। जिस भूमिका पर आसन लगाये, उसका भलीभांति अवलोकन करे । यह विनय का विशेष आकलन है। ६) मानसिक शुद्धि : मन विचारों का केन्द्र है। विचार जिस ओर उसे ले जाते हैं, वह उधर ही चला जाता है। पुनश्च: वैसी ही क्रियाओं में संलग्न हो जाता है। साधारणत: जब कोई व्यक्ति जप में बैठता या ध्यानस्थ होता है तो मन जप और ध्यान के लक्ष्य से हट जाता है। जिनका जप या ध्यान करता है, वे मन से निकल जाते है। मंत्राक्षरों का मुखद्वारा उच्चारण मात्र होता है। चिंतन धारा कहीं की कहीं चली जाती है। पुन: पुन: अपने लक्ष्य पर मन को केन्द्रित रखने का सतत प्रयास करते रहने से मन का विचलन कहीं बंद हो सकता है। (१२१)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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