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गृहस्थ साधक अपने घर के किसी एकांत भाग का भी जप - साधना में उपयोग कर सकता है। यद्यपि जप का मूल संबंध तो साधक की अपनी आत्मा के साथ है, किंतु बाहर के स्थान की अनुकूलता का भी प्रभाव पड़ता है। जो स्थान कोलाहल आदि से पूर्ण होता है, वहाँ जप में बाधा उत्पन्न होती है। जब अभ्यास परिपक्व हो जाये, तब कोई अंतर नहीं आता किंतु प्रारंभ में प्रतिकूल वातावरण का दुष्प्रभाव होता है। अत: समुचित स्थान का चयन करना वांछित है। ३) काल शुद्धि -
नवकार का जप तो एक ऐसा पवित्र कार्य है कि जब चाहे तब उसे किया जा सकता है। जब भी मन में स्थिरता और तल्लीनता हो, तब जप किया जा सकता है। किंतु, फिर भी जप के लिए सुबह का, दोपहर का तथा शाम का समय अधिक उचित माना गया है। जितनी देर पर कर सकें, परिश्रांति न हो साधक जप करता रहे।
जिस समय वह जप करे, उसके मन में सांसारिक भाव और चिंताएँ न रहें। प्राय: ऐसा होता है, जब जप में, सामायिक आदि में संलग्न होते हैं, तब मन में भिन्न-भिन्न प्रकार के सांसारिक विचार आते रहते हैं। इसका कारण व्यक्ति की सांसारिक पदार्थों में अत्यंत आसक्ति है। मन में यदि वैसे भाव रहते हैं तो जप औपचारिक हो जाता है । जप से जो आत्म-शक्ति स्फुरित होनी चाहिए, वह नहीं होती। इसलिए, समुचित- उपयुक्त स्थान में निश्चिंत और निराकुल भाव से जप करना अपेक्षित है। यदि जप का काल प्रतिदिन के लिए निश्चित रहे, तथा उसी के अनुसार जपाभ्यास चले तो उसमें स्थिरता और परिपक्वता आती है। ४) आसन -शुद्धि -
आसन का अर्थ बैठना या स्थित होना है। बैठने के लिए काष्ट पट्ट, चटाई, वस्त्र आदि में से किसका उपयोग किया जाये - इस संबंध में भी विद्वानों ने चिंतन किया है। यद्यपि आसन के लिए यह कोई अत्यावश्यक नियम नहीं है कि अमुक वस्तु का ही प्रयोग किया जाये, परंतु जपाभ्यासी साधकों का ऐसा अनुभव है कि श्वेत ऊन का आसन उत्तम होता है क्योंकि ऊन का पौद्गलिक परमाणु - संचयन, संघटन ऐसा होता है कि दूसरी वस्तु का ऊन पर बहुत कम प्रभाव पड़ता है।
योग में विरासन, वज्रासन, पद्मासन, भद्रासन आदि अनेक आसनों का वर्णन आया है। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में ध्यान या जप के समय किस आसन में स्थित होना चाहिए, इस संबंध में उल्लेख किया है कि किसी विशेष आसन का ही ध्यान में प्रयोग किया
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