SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संक्षिप्त स्वरुप है। तात्विक दृष्टि से शब्द - ब्रह्म परब्रह्म का वाचक है । परब्रह्म विशुद्ध ज्ञानस्वरुप है। वही साधक के लिए उपास्य और आराध्य है। आराध्यता या उपास्यता का भाव- हेतु वीतरागत्व आदि गुण है । जहाँ वीतरागत्व है, वहाँ सर्वज्ञत्व है, अत: वीतराग एवं सर्वज्ञ जैसे सर्व - दोष - शून्य ज्ञान स्वरुप की आराधना, उपासना ही परम पद - सिद्धावस्था या मुक्तावस्था को प्राप्त करने का मूल हेतु है ।१३६ नवकार मंत्र उसका अमोघ साधन है। वह शब्द ब्रह्मात्मक है। उसी का सिद्धिपरक स्वरुप परब्रह्म है । नवकार रुप शब्द-ब्रह्म आत्मोपासना, आत्माराधनाद्वारा पर-ब्रह्म के रुप में परावर्तित हो जाता है, क्योंकि उससे ज्ञायक भाव उदित होता है। वह आत्मा की शुद्धावस्था है। उसके प्राप्त हो जाने पर समस्त कर्मों की कालिमा मिट जाती है। आत्मा निर्मल बन जाती है। द्रव्यात्मक - पर्यायात्मक दृष्टि से नवकार का निरुपण नवकार मंत्र शब्दात्मक है। द्रव्यत्व की अपेक्षा से शब्द नित्य माना जाता है ।१३७ पर्याय की अपेक्षा से वह अनित्य है। इसके अनुसार नवकार मंत्र को द्रव्यात्मक दृष्टि से नित्य तथा पर्यायात्मक दृष्टि से अनित्य माना जाता है। द्रव्य भाषा के अपने पुद्गल होते हैं।१३८ पुद्गल के पर्याय अनित्य होते हैं । तदनुसार भाषा के पुद्गल भी अनित्य है । भाव-भाषा आत्मा का क्षयोपशमात्मक रुप है, अपौद्गलिक है। जिस प्रकार आत्म-द्रव्य नित्य है उसी प्रकार भाव भाषा भी नित्य है ।१३९ नवकार मंत्र द्रव्यात्मक दृष्टि एवं भावात्मक दृष्टि की अपेक्षा से शाश्वत है। शब्द की तथा अर्थ की अपेक्षा से नित्य है। जैन शास्त्रों के अनुसार नवकार मंत्र शाश्वत और अनादि है। सर्व संग्राही नैगमनय की अपेक्षा से यह विवेचन है। विशेषग्राही नैगम, ऋजुसूत्र तथा शब्द आदि नयों की अपेक्षा से नवकार मंत्र उत्पन्न माना जाता है। १४० जैन सिद्धातांनुसार श्रुत या ज्ञान की परंपरा तत्वभाव का अर्थ के रुप में अनादि है, नित्य है। भिन्न - भिन्न युगों में तिर्थंकर उन्हीं तत्वों की अपने अपने शब्दों में देशना देते हैं। नवकार मंत्र श्रुत का प्रतीक है इसलिए वह अनादि है, अनादि की उत्पत्ति नहीं होती। इसलिए भाव की दृष्टि से वह अनुत्पन्न है, नित्य है। शब्दात्मक रुप द्रव्य - दृष्टि से भी नित्य है। पर्याय क्षण - प्रतिक्षण बदलते हैं, इसलिए वे अनित्य होते हैं। उदाहरणार्थ एक व्यक्ति किसी शब्द का उच्चारण करता है। उसके मुख से शब्द निकलता है, वह आकाश में लीन हो जाता है। जो लीन हो जाता है, वह शब्द का पर्याय है, अवस्था है। 44. (११८)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy