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होती, तब तक उसके अभ्यास से जितना चाहिए उतना लाभ नहीं होता। जिस साधक के मन में अपने आराध्य महापुरुषों के प्रति आस्था और विश्वास होता है, वन की, उनके उस मंत्र की आराधनाद्वारा शांति प्राप्त कर सकता है। आस्था के साथ - साथ आराधक के मन में यह भाव रहे कि जिन सर्व दोष विवर्जित विशुद्ध आत्माओं का आदर्श मेरे समक्ष है, मैं भी उन राग-द्वेष-विजेता आत्माओं के सदृश अपने आपको दोष रहित, पवित्र बनाने का प्रयास करूँ, यह मेरा परम कर्तव्य हैं ।
नवकार में वर्णित शुद्ध आत्माओं के सदृश राग द्वेषादि आत्म दुर्बलताओं को जीतने का साधक मन में भाव उद्दीप्त करें। जिस प्रकार उन शुद्ध एवं निर्मल आत्माओं ने राग-द्वेषादि को जीता, कर्म के आस्त्रत्वों को अवरुद्ध किया, संचित कर्मों को क्षीण किया, उसी प्रकार उन आत्माओं को स्मरण कर साधक मनन करे, चिंतन करे । वह कर्मास्त्रवों का निरोध करें । पूर्व संचित कर्मावरणों का तप द्वारा निर्जरण करे - नाश करे । १३५
नवकार मंत्र में वर्णित महान् आत्माओं की शरण ले । शरण लेने का उद्देश्य उन्हीं की तरह अपने शुद्ध स्वरुप को प्राप्त करना है । जैसा लोहा पारस के स्पर्श से सुवर्ण बन जाता है, उसी प्रकार परमात्मा के स्मरण से, उनका आलंबन लेने से, जिस मार्ग को प्राप्त कर के शुद्धात्म स्वरुप तक पहुँचे, उस मार्ग का आलंबन लेने का भाव साधक में उदित होता है, उत्साह जागता है, प्रेरणा उत्पन्न होती है। वह उस ओर प्रयत्नशील होता है । अपने प्रयत्न में साधक अग्रसर होता जाता है । जहाँ भी विघ्न या बाधायें आती है, परमेष्ठी भगवंतों के स्मरणसे, ध्यान से वे नष्ट हो जाती हैं ।
जैसे जलते हुए एक दीपक की ज्योति से अन्य दीपक प्रज्वलित हो जाते हैं, वैसे ही महान् आत्माओं के सान्निध्य से, सांसारिक विषय, कषाय, दोष आदि से साधक रहित हो जाते हैं। नवकार एक महान् मंगल सूत्र हैं । वह मंगल जीवन के उत्थान का, अभ्युदय और उन्नयन का अत्यंत महत्त्वपूर्ण आधार है।
नवकार महामंत्र से ज्ञातृत्व
निश्चय-दृष्टि से आत्मा ज्ञाता है, द्रष्टा है । वह अपने स्वभाव का ही स्वामी है । वह परभाव का कर्ता नहीं है । अपने में परभाव का कर्तृत्व मानना अज्ञान - प्रसूत मोह है । ज्ञायक भाव आत्मा का स्वभाव है, राग, द्वेष, आदि विभाव है । सांसारिक जीव बहुलतया विभावों पर आश्रित रहते हैं, विभावोन्मुख होते हैं । नवकार मंत्र जीवों को स्वभावोन्मुख होने की प्रेरणा देता है | नवकार मंत्र में अर्हम् तत्व परिव्याप्त हैं । यह वर्णमाला का एवं शब्द ब्रह्म
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भाव